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महाराजा विनयादित्य ने दोनों के सिर सहलाये और कहा, "बैठो! इस पलंग पर ही बैठी। क्या सह सांग आग : यह जम्मानी काम है 'महाराज ने पूछा।
बिट्टिदेव दादा के पास पलंग पर ही बैठा। शान्तला वहाँ रखे दूसरे एक आसन पर बैठी।"उनके आने में थोड़ा समय और लगेगा। सब भोजन के बाद वेलापुरी से साथ ही निकले । हम घोड़ों पर चले आये। यह बलिपुर के हेग्गड़े मारसिंगय्याजी की पुत्री है।" बिट्टिदेव ने कहा।
"तुम्हारा नाम क्या है, अम्माजी?" विनयादित्य ने पूछा। "शान्तला।"
"शान्तला, बहुत सुन्दर । परन्तु तुम्हें इस छोटी वय में घोड़े पर सवारी करना आता है, यह बड़े ही आश्चर्य का विषय है। क्या तुम दोनों ही आये?" विनयादित्य ने पूछ।।
"नहीं, हमारा रेविमय्या और बलिपुर का इनका रायण-दोनों हमारे साथ आये हैं।"
"अच्छा, यात्रा से थके हैं । इस अम्माजी को अन्त:पुर में ले जाओ। दोनों आराम
करो।"
दोनों चले गये।
उन दोनों ने बाहर निकलने के लिए देहली पार की ही थी कि इतने में मरियाने दण्डनायक वहाँ पहुँचे।
दण्डनायक को बैठने के लिए कहकर महाराजा ने पूछा, "अभी हमारे छोटे अप्पाजी के साथ जो अम्माजी गयी उसे आपने सोसेऊरु में देखा था न? उसका तो एक बार आपने जिन भी किया था।"
"जी हाँ, वह तो हेग्गड़े मारसिंगय्या की बेटी है।' मरियाने दण्डनायक ने कहा। "ऐसा लगता है कि हेग्गड़ेजी ने अपनी बेटी को बहुत अच्छी शिक्षा दी है।" "इकलौती बेटी है, राजघराने से उसे किस बात की कमी है?"
"मैंने यह नहीं कहा। उसकी व्यवहार-कुशलता के बारे में बताया। छोटे अप्पाजी और वह अम्माजी दोनों ने आकर नमस्कार किया। दोनों से अपने पलंग पर बैठने को कहा। परन्तु वह लड़की दूर पर रखें आसन पर जा बैठी। इस छोटी उम्र की बालिका में इस औचित्य-ज्ञान को देखकर सन्तोष हुआ। सुना है कि वह छोटे अप्पाजी के साथ अपने घोड़े पर ही आयी है।"
"उस हेग्गड़े को अपनी बच्ची से बहुत प्रेम है। शायद यह सोचकर कि अपनी लड़की रानी बनेगी, उसने अश्वारोहण सिखाया हो।" मरियाने दण्डनायक ने कुछ व्यंग्य से कहा।
पट्टमहादेवी शान्तला :: 61