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________________ परमार भोज का पता लगाकर आया है, क्या सन्निधान के पास उसे भेजूं?' मैंने पूछा। 'भेजो।' आज्ञा हुई तो फौरन लौटा। भाग्य से वह वहीं खड़ा था। मैंने उससे कहा, 'जाओ, घण्टी है, उसे बजाना और बुलाने पर ही अन्दर जाना।' इतना सब होने के बाद मेरे मन में फिर भी सन्देह बना रहा। इसलिए उस छेद से देखने की इच्छा हुई। परन्तु वहाँ शिविर के मुख्य द्वार की रक्षा की याद आयी, जहाँ पहरे पर कोई और नहीं था। तो बाहर दौड़ पड़ा1 साथ के दूसरे व्यक्ति को बुलाकर वहाँ पहरे पर खड़ा किया। फिर मैं अन्दर आया और छेद से देखने लगा। मैं अपनी आँखों पर विश्वास न कर सका। मुझे लगा कि मैं स्वप्न देख रहा हूँ। ऑलें गड़ी। फिर माया, नाग पहा हूँ फिर से एक बार छेद से देखा। मुझे लगा, मैंने जिसे अन्दर भेजा था वह पुरुष नहीं, कोई स्त्री है। मुझे मालूम ही नहीं था कि हमारे गुप्तचरों में स्त्रियाँ भी हैं। 'हाँ, आगे।' प्रभु के शब्द थे जो पलंग पर अटल बैठे थे। उनकी ध्वनि में आत्मीयता के भाव न थे। सन्देह और प्रश्न दोनों ही उससे व्यक्त हो रहे थे। __ 'प्रभुजी, मुझे क्षमा करें। मैं परमार भोज की तरफ की हूं यह सत्य है। झूठ बोलकर अन्दर आयी हूँ। परन्तु इसमें धोखा देने का उद्देश्य नहीं। अनुग्रह की भिक्षा माँगने आयी हूँ। एक प्रार्थना है। स्त्री रूप में उसकी आवाज मधुर थी, और रूपवह भी अवर्णनीय । पुरुषोचित दाढ़ी-मूंछ आदि सब-कुछ अन्न नहीं थे। मैं सोच ही नहीं सका कि उस कराल बनावट के अन्दर इतना सुन्दर रूप छिपा रह सकता है! मुझमें कुतूहल जगा। यों तो मुझे ऐसा झाँककर देखना नहीं चाहिए था, लेकिन प्रभु की रक्षा का कार्य मेरा ही था। मुझे शंका उत्पन्न हो गयी थी। इसलिए ऐसा करना पड़ा। कुतूहलवश ही सही, मुझे वहीं देखते रहने के लिए बाध्य होकर खड़ा रहना पड़ा। __ 'हमारे लोगों की तरफ से कुछ बाधा हुई है क्या?' प्रभु के इस प्रश्न पर वह बोली, 'नहीं, लेकिन धारानगर को यदि आग न लगायी गयी होती तो आपका व्यवहार आदर्श व्यवहार होता।' फिर प्रभु के कहने पर वह कुछ दूर एक आसन पर बैठ गयी तो प्रभु ने पूछा कि वह उनसे क्या चाहती है। लेकिन वह मौन रही। उसकी चंचल आँखों ने इधर-उधर देखा तो प्रभु ने उसे आश्वस्त किया। यहाँ डरने का कोई कारण नहीं। नि:संकोच कह सकती हो।' 'आपका वह पहरेदार...?' उसकी शंका को बीच में ही काटा प्रभु ने, 'ऐसी कुबुद्धिवाले लोगों को हमारे शिविर के पास तक आने का मौका ही नहीं। जो भी कहना चाहती हो, निःसंकोच कहो।' प्रभु के इन शब्दों से मुझे लगा कि किसी ने थप्पड़ मार दिया हो। वहाँ से चले जाने की सोची। परन्तु कुतूहल ने मुझे वहीं इटे रहने को बाध्य कर दिया। _ 'मैं एक बार देख आऊँ?' उसने पूछा। 14 :: पट्टमहादेवी शान्तला
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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