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________________ और स्पर्धा में अपने को श्रेष्ठ समझना उनका स्वभाव होता ही है, परन्तु बड़े होने के नाते हमें ऐसी स्पर्धा को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए। प्रजा को राजा पर हाथ उठाना उचित होगा क्या, सिंगि? मालिक हमेशा एक बात कहा करते हैं, भले ही हम बलवान हों, अपने बल पर हमें आत्म-विश्वास भी हो, तो भी उसे कभी प्रभु के सामने नहीं कहना चाहिए क्योंकि प्रभु का विश्वास खोने की ओर वह पहला कदम होगा, आज ही प्रारम्भ और आज ही परिसमाप्ति। ऐसा काम कभी न करो, आगे से शान्तलाबिट्टिदेव में या उदयादित्य-शान्तला में स्पर्धा न होने दी जाए। मैं भी अम्माजी को समझा दूंगी। विद्या से बिप-सालाना बढ़ जाहिए, उनका कारण नहीं बना चाहिए। खासकर स्त्री को विनीत ही रहना चाहिए, वह उसके लिए श्रेष्ठ आभूषण है, स्पर्धा से उसका महत्त्व नहीं रह जाता, समझे? तुम्हें उत्साह है, तुम्हारे उत्साह के साथ उनके उत्साह की गर्मी भी मिल जाए तो परिणाम क्या होगा, सोचो। फिर भी तुमने, बिट्टिदेव को हारने न देकर स्पर्धा समाप्त की, यह अच्छा किया।" शान्तला युवरानी को जो वचन दे आयो वह प्रकारान्तर से चामला की भावनाओं का अनुमोदन श्रा, परन्तु बिट्टिदेव के जन्म-दिन की पूर्व-सूचना न मिलने से वह कुछ परेशान हुई थी जो और भी धूम-धाम से किया जा सकता था, सारे ग्रामीणों को न्यौता दिया जा सकता था। युवरानीजी ने बिना खबर दिये क्यों किया। यह बात उसे खरकती रही तो उसने हेग्गड़े से कहकर राज-परिवार और राजकुमार को मंगल-कामना के उद्देश्य से भी मन्दिरों, वसतियों और बिहारों में पूजा-अर्चा का इन्तजाम करने और युवरानीजी से विचार-विनिमय के बाद शाम को सार्वजनिक स्वागत-भेंट आदि कार्यक्रम की बात सोची। हेग्गड़ेजी ने स्वीकृति दे दी और तुरन्त सिंगिमय्या को सत्र काप कराने का आदेश दिया। हेगड़ती अब युवरानीजी के पास पहुँची, बोली, "मैं युवरानीजी की सेवा में अपनी कृतज्ञता निवेदन करने आयी हूँ। सिंगिमय्या ने सवेरे की घटना का विवरण दिया। ऐसा होता नहीं चाहिए था। हम ठहरे आपकी प्रजा, राजघराने के लोगों के साथ हमें स्पर्धा नहीं करनी चाहिए। बाल-बुद्धि ने शान्तला से ऐसा कराया है। उसे कड़ा आदेश देकर रोकने का आपको अधिकार था, तो भी आपने क्षमा की और उससे वादा करा लेने की उदारता दिखायी। सन्निधान के इस औदार्यपूर्ण प्रेम के लिए हम ऋणी हैं, कृतज्ञ हैं। इसी तरह, अज्ञता से हो सकनेवाले हमारे अपराध को क्षमा कर हम पर अनुग्रह करती रहें।" "हेग्गड़तीजी, इसमें आपकी ओर से क्षमा माँगने लायक कोई गलती नहीं हुई है। हमारी ओर से कोई औदार्य की बात भी नहीं हुई। किसी कारण से मैं युवानी हूं। युवरानी होने मात्र से मैं कोई सर्वाधिकारिणी नहीं हूँ, सबसे पहले मैं माँ हूँ। माँ क्या चाहती है, उसका सारा जीवन परिवार-जनों की हित-रक्षा के लिए धरोहर बना रहे १९4 :: पदमहादेवी शान्तला
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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