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________________ शिल्पी की आँखों में खड़ी मूर्ति ही बस रही होगी।" "लक्ष्मी चंचला है। अतः वह जाने को तैयार खड़ी रहती है। सरस्वती ऐसी नहीं। एक बार उसका अनुग्रह जिस पर हो जाता है वहाँ स्थिर हो जाती है। इसलिए वह सदा बैठी रहती है--ऐसा आपने ही एक बार कहा था न?" "हाँ, अम्माजी, कहा था। मैं भूल हो गया था। वह वास्तव में सांकेतिक है। इसके लिए कई प्रत्यक्ष प्रमाण देखे हैं। आज कोई निर्धन तो कल धनी। आज का धनी कल निर्धन । यह सब लक्ष्मी की चंचलता का प्रतीक ही है। इसीलिए शिल्पी, चित्रकार ऐसे ही निरूपित करते हैं। परन्तु एक बार ज्ञानार्जन कर लें तो वह ज्ञान स्थायी हो जाता है। वह अस्थिर नहीं होता। वह स्थिर और शाश्वत होता है।" शान्तला ने फिर प्रश्न किया, "मतलब यह कि इस मूर्ति के शिल्पी को शारदा भी चंचल लगी होगे।" बीच में पुजारी बोल उठा, "क्षमा करें, इसके लिए एक कारण है। यह शिल्पी की कल्पना नहीं । इस सम्बन्ध में एक किंवदन्ती है। थोड़े में कह डालूँगा : श्री आदि शंकराचार्यजी ने भारत की चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना करने की बात सोचकर पुरातन काल में महर्षि विभाण्डक की तपोभूमि और ऋष्यश्रृंग की जन्मभूमि के नाम से ख्यात, तुंगा तीर के पवित्र क्षेत्र में दक्षिण-मठ की स्थापना करके, यहाँ श्री शारदा की मूर्ति को प्रतिष्ठित कर जानाराधना के लिए उपयुक्त स्थान बनाने की सोची। 'अहं ब्रह्मास्मि' महावाक्य, यजुर्वेद संकेत, इस मठ के पीठाधीश चैतन्य-ब्रह्मचारी और भूरिवार-सम्प्रदाय के अनुसार यहाँ अनुष्ठान हों-यह उनकी इच्छा रही। इसी इरादे के साथ आद्य आचार्य शंकर ने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। इस दक्षिण यात्रा के समय एक विशेष घटना हुई। श्री शंकराचार्य जी ने शास्त्रार्थ में मण्डनमिश्र और सरस्वती की अवतार स्वरूपिणी उनकी पत्नी को हराया तो था ही। तब सरस्वती अपने स्थान ब्राह्मलोक चली जाना चाहती थी। उनकी इस इच्छा को जानकर आचार्य शंकर ने वनदुर्गा मन्त्र के बल पर उस देवी को वश में कर लिया और अपनी इस इच्छा को देवी के सम्मुख प्रकट किया कि उन्हें उस स्थान में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं जहाँ अपने दक्षिण के मठ की स्थापना करने का इरादा है। इस प्रकार की प्रार्थना कर उन्होंने देवी को मना लिया।" ___ शान्तला ध्यान से सुनती रही, पूछा, "सिद्धि मन्त्र द्वारा वश में कर लेने के बाद फिर प्रार्थना क्यों?" पुजारी ने इस तरह के प्रश्न की अपेक्षा नहीं की थी। क्षण-भर शान्तला को स्तब्ध होकर देखता रहा। फिर बोला, "अम्माजी | हम जैसे अज्ञ, आचार्य जैसे ब्रह्मज्ञानियों की रीतिनीतियों को कैसे समझ सकते हैं। उनकी रीतिनीतियों को समझने लायक शक्ति हममें नहीं है। कालक्रम से इस वृत्तान्त को सुनते आये हैं। उन आचार्य पट्टमहादेवी शान्तला :: 37
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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