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________________ दोनों राजकुमारों की प्रगति देखकर वास्तव में उन्हें आश्चर्य हुआ। खासकर 'खल्लाल की प्रगति तो कल्पनातीत थी। ऐसी बुद्धिमत्ता और पौरुष उसमें हो सकता है, यह उनकी समझ में नहीं आया था। दण्डनायक को गर्व का अनुभव भी हुआ, आखिर कभी तो वे उसके दामाद होंगे। यह हो ही नहीं सकता, ऐसा तो युवराज ने नहीं कहा था। प्रतीक्षा उसके उत्तरदायित्व पर छोड़ रखी है और उसने भी प्रतीक्षा करने का निर्णय कर लिया है। इसलिए बड़ी रानी के साथ प्रस्थान करने के पहले उसने डाकरस से इस विवाह के बारे में राजकुमार का अभिमत जानकर सूचित करने को भी कहा जिसने कुछ न कहकर सिर्फ सिर हिला दिया। कार्य समाप्त करके मरियाने बड़ी रानी के साथ दोरसमुद्र पहुँच गया। खुद चिण्णम दण्डनायक की देख-रेख में चालुक्य बड़ी रानी अब अपने निज रूप में थी । साथ में हिरियचलिके नायक, गालब्बे और लेंक भी थे। वास्तव में वे रेविमय्या को अपने साथ ले जाना चाहती थीं, लेकिन बिट्टिदेव के भविष्य का रक्षक और एक तरह से अंगरक्षक होने से वह न जा सका। युवराज, युवरानी और राजकुमारों से विदा लेते समय उन्हें मानसिक बदना हुई थी लेकिन उससे तीव्र वेदना रेविमय्या से विदा लेते वक्त हुई थीं। ऐसा क्यों हुआ, यह उनकी समझ में नहीं आया। उनके सारे काम वास्तव में गालब्बे और लेंक ने ही किये परन्तु रेविमय्या के प्रति बड़ी रानी के दिल में उनसे भी बढ़कर एक विशिष्ट तरह का अपनापन उत्पन्न हो गया था। उस दिन बलिपुर में शान्तला ने 'फूफी वह भी ऐसा ही है जैसी आप हैं।' कहते हुए रेवमय्या के बारे में जो बातें बतायी थीं, उनसे उसके प्रति उनके दिल में एक तरह की व्यक्तिगत सद्भावना अव्यक्त रूप से पनपने लगी थी । यहाँ आने पर युवरानी और युवराज के उससे व्यवहार की रीति तथा अपनी विनयशीलता आदि के कारण भी वह बड़ी रानीजी का प्रीतिभाजन बना। इसके साथ एक और बात थी कि जो कुछ शान्तला के लिए प्रीतिभाजन था वह उन्हें अपना भी प्रीतिभाजन लगा था। उनके मन में यह विचार आया कि शान्तला की, एक छोटी अप्रबुद्ध कन्या की इच्छाअनिच्छाओं का इतना गहरा प्रभाव मुझपर एक प्रबुद्ध प्रौढ़ा पर पड़ा है, जिससे प्रतीत होता है कि मानव की बुद्धि के लिए अगोचर प्रेम की कोई श्रृंखला अवश्य है जो मुझे अपनी ओर खींचकर झकझोर रही हैं। 44 बलिपुर का दो दिन का मुकाम उन्हें दो क्षण का सा लगा। बूलुग चकित होकर दूर खड़ा रहा। बड़ी रानी ने चिर-परिचित-सी उससे कहा, 'अरे, इधर आ, क्यों डराडरा इतनी दूर खड़ा है ? क्या तुझे मालूम नहीं कि मैं कौन हूँ?" "ऐसा भी हो सकता है, माँ ? आपको देखते ही मेरी जीभ जकड़ गयी। इस नालायक जीभ का दुरुपयोग कर मैंने महापाप किया। मुझे यह कीड़ा भरी जीभ भूलने देगी।" TIN :: पट्टमहादेवी शान्तला
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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