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आत्मकथन (मूल कनड़ संस्करण से)
मैंने 1933 में श्रवणबेलगोल, हलेबिड, बेलूर को पहली बार देखा। वह भी हम सात मित्र जेब में दो-दो रुपये रखकर साइकिल पर एक सप्ताह के प्रवास के लिए निकले, तब। गोमटेश्वर की भव्यता, हलेबिड के मन्दिरों का गाम्भीर्य, बेलूर के मन्दिर का कला-सौन्दर्य मेरे मन में बस गया था। बेलूर के गाइड श्री राजाराव ने बेलूर के मन्दिर के बारे में बहुत कुछ बताया था, लेकिन वह सब तब मेरे मस्तिष्क में नहीं ठहरा। उन स्थानों का स्मरण तो अवश्य ही कभी-कभी हो जाता था, परन्तु इतिहास के लिए वहाँ स्थान नहीं था।
1945 में मुझे पुन: सुअवसर मिला। चिकमगलूर कर्नाटक-संघ का कार्यकलाप स्थगित-सा हो गया था। उस संघ में नयी चेतना भरने के लिए उद्यत 'कन्नड़ साहित्य परिषद्' की मैसूर प्रान्तीय समिति ने चिक्कमगलूर, बेलूर तथा हासन में भाषण आदि का कार्यक्रम नियोजित किया था। इस कार्य के लिए बेंगलूर से श्री डी,वि. गुण्डप्पा के नेतृत्व में एक जत्था निकला। श्री गुण्डप्पा के साथ सर्वश्री निट्टर श्रीनिवास राव, मान्धि नरसिंगराव और यह लेखक थे। श्री डी.वि. गुण्डप्पा अपनी 'अन्त:पुरगीत' पुस्तक में शिला-बालिकाओं के चित्र मुद्रित कराना चाहते थे। इसलिए साथ-साथ उन शिला-बालिकाओं के फोटो खिंचवाने का भी काम था। दो दिन वहीं ठहरे। तब वहाँ के पुजारीसमुदाय के मुखियों में एक श्रीमुतुभट्ट से डी.वि. गुण्डप्पा आदि वरिष्ठ जनों ने जो विचार-विनिमय किया उससे मेरे मन में एक विशेष अभिरुचि पैदा हो गयी।
इस बार यह चर्चा मेरे मन में पैठ गयी। शान्तला और जकणाचारी के बारे में मेरा कुतूहल बढ़ चला। विषय-सामग्री संग्रह करने की दृष्टि से मैं उस दिशा में प्रयत्न करने लगा।
1947 में मैं कन्नड़ साहित्य परिषद् का मानद सचिव चुना गया। यह मेरे लिए एक गर्व की बात थी। तब तक मेरी सात-आठ पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी थीं। प्रसिद्ध साहित्यकारों में मेरी गिनती होने लगी थी। 1942 की जनगणना रिपोर्ट में,
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