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________________ लिए आतुर हो रही थीं। पंचों ने झट से उठकर कहा "अब दण्ड-निर्णय प्रभु को ही देना चाहिए। हम तो उन्हें श्रीदेवीजी के पति का भाई ही समझ रहे थे। इस अज्ञता के कारण जो अपचार हमने किया उसके लिए हम क्षमा चाहते हैं।" एरेयंग प्रभु ने कहा, "आप अपने न्यायपीठ पर विराजिए। हम युवराज अवश्य हैं, किन्तु यहाँ इस प्रसंग में साक्षी की हैसियत से उपस्थित हैं। न्यायपीठ के समक्ष हम केवल साक्षी हैं, युवराज नहीं। आज साक्ष्य का प्रसंग नहीं आया। आया होता तो इस न्यायपीठ के सामने प्रमाण-कचन स्वीकार करते । धर्मपरिपालन, शिष्टरक्षण और दुष्टनिग्रह यही राजधर्म है। हमें न्यायपीठ के गौरव और प्रतिष्ठा की रक्षा करनी ही चाहिए। आप सब लोग बैठिए।"पंच बैठे, लोग भी बैठ गये। हेग्गड़ेजी ने अपना वक्तव्य आगे बढ़ाया, "आज से चार दिन पूर्व प्रभु से समाचार विदित हो चुका था इसलिए परसों मन्दिर में श्वेतछत्र-युक्त पूर्णकुम्भ के साथ चालुक्य बड़ी रानीजी को आदरपूर्वक देवदर्शन कराया और प्रजाहित की दृष्टि से इष्टदेव की अर्चना करायी गयी।" । लोगों में फिर हलचल शुरू हो गयी। चालुक्य बड़ी रानी, साधारण वेश-भूषा में निराडम्बर बैठी श्रीदेवी! सबकी आंखें उन्हीं पर लग गयीं। गालब्बे ने दांत से उँगली काटी। शान्तला ने प्रश्नार्थक दृष्टि से देखा। माचिकळ्ये के चेहरे पर एक मुसकराहट दौड़ गयी। श्रीदेवी ने माचिकब्बे की ओर आश्चर्य से देखा। हेगड़े मारसिंगय्या एक के बाद एक रहस्य का उद्घाटन करते गये, "चालुक्य चक्रवर्ती हमारे प्रभु युवराज को अपनी दायों भुजा मानते हैं, और भाई के समान मानते हैं। भाई के समान क्यों, भाई ही मानते हैं। इसलिए हमारा यह कहना बिल्कुल ठीक है कि वे अपने भाई की धर्मपत्नी को ले जाने आये हैं। मैं प्रभु का दूतमात्र हूँ, फिर भी उन्होंने बड़ी रानीजी को मेरे पास धरोहर के रूप में भेजा हेगड़तीजी से, मेरी बेटी शान्तला से, और यहाँ के नौकर-चाकरों से जितनी सेवा हो सकी, उतनी इनके गौरव के अनुरूप नहीं मानी जा सकती। सन्तोष है कि बलिपुर के लोगों ने उन्हें मायके में आयी बहिन पाना 1 वे जन्म से ही बड़े वैभव में रही हैं फिर भी हमारे साथ अपने ही लोगों की तरह हिलमिलकर रहीं। यह हमारा भाग्य है। संयम के बिना इस तरह जीवन को परिवर्तित परिस्थितियों के साथ समन्वित कर लेना सम्भव नहीं। उन्हें बहिन की तरह प्राप्त करने में, प्रभु का मुझ पर जो विश्वास है वही कारण है। प्रभु के इस विश्वास के लिए मैं उनका सदा ऋणी हूँ। हमारी सेवा में निरत यह गालब्छे अगर इस धीरता और स्थैर्य से काम न लेती तो इस रतन व्यास को पकड़ना सम्भव नहीं था। उसने अपने शील की बाजी लगाकर इस राज्य की रक्षा के लिए अपने को अर्पण कर महान उपकार किया है। इसी तरह उसके पति लेंक ने भी, रायण ने भी, एक-दो नहीं, सभी ने इस पुण्य कार्य में सहायता दी है। बलिपुर की जनता के समक्ष मैं इस न्यायपीठ के सामने न्यासरूप बड़ी रानीजी को युवराज के हाथों में सौंपता हूँ। प्रभु इस न्यास पट्टमहादेवी शान्तला :: 229
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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