________________
"सच हो तो शर्त क्या रही?" "शर्त? तुम ही कहो क्या होगी?"
"दीदी के साथ अपने हिस्से का नाश्ता तो लेना ही होगा, मेरे हिस्से का भी लेना होगा क्योंकि वहाँ आपके हिस्से का मैंने खा लिया है।" उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही चामला चली गयी, चामव्वा भी।
"पद्या, तुम्हारी बहन ने जो कहा क्या वह सच है?" "ऐसी छोटी बात पर कौन झूठ बोलेगा?" "तो क्या बड़ी पर झूक बोला जा सकता है।
"मेरी माँ कभी-कभी कहा करती हैं कि झूठ बोलने पर काम बनता हो तो झूठ बोला भी जा सकता है।"
"मेरी और तुम्हारी माँ में बहुत अन्तर है।" "आपकी दृष्टि में कौन सही है?"
"मेरी माँ की नीति आदर्श नीति है। तुम्हारी माँ की नीति समयानुकूल है। एक तरह से उसे भी सही कह सकते हैं।"
जब जिसकी माँ की नीति को युवरानीजी की नीति से भिन्न होने पर भी खुद राजकुमार सही मानते हों उस बेटी को खुशी ही होनी चाहिए, वह बल्लाल की तरफ देखने लगी। अचानक रुकी हँसी एकदम फिर फूट निकली। बल्लाल को सन्तुष्ट करने के लिए यह आवश्यक था। वह भी मुसकराया। उस मुसकराहट को दबाकर उसके मन में अचानक एक सन्देह उठ खड़ा हुआ, उसकी भौहें चढ़ गयीं।
"क्यों ? क्या हुआ?" पद्मला से पूछे बिना न रहा गया।
"पता नहीं क्यों मेरे मन को तुम्हारी बहन की बात पर विश्वास नहीं हो रहा है। उसने मजाक में कहा होगा, लगता है।"
"ऐसा लगने का कारण?"
"कुछ विषयों का कारण बताया नहीं जा सकता। मनोभावों में अन्तर रहता है। इस अन्तर के रोज के अनुभव से लगता है कि इस तरह होना सम्भव नहीं।"
"मनोभावों में अन्तर? किस तरह का?" "स्वभाव और विचारों में अन्तर।" "किस-किस में देखा यह अन्तर आपने?"
"किस-किसमें ? मेरे और मेरे भाई में अन्तर है। इसीलिए माँ के साथ नाश्ता करते समय वह भी साथ रहा, इस बात पर मुझे यकीन नहीं होता।"
"क्यों?" "जिसे वह चाहता नहीं, उसके साथ यह घुलता मिलता ही नहीं।" "तो क्या चामला को वह नहीं चाहता?"
174 :: पट्टमहादेवी शान्तला