SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्यों लगना चाहिए ? - यह बात उसकी समझ में नहीं आ रही थी । इसीलिए उसने गुरुजी में पूछा. "गुरुजी, युद्ध का लक्ष्य हिंसा ही है न?" " लक्ष्य हिंसा हैं, यह नहीं कहा जा सकता अम्माजी मगर इसकी क्रिया हिंसायुक्त है - यह बात अक्षरशः सत्य है ।" +4 'तब जैन धर्म का मूल्य ही क्या रहा?" LI 'राजा धर्मरक्षा हीं के लिए है। प्रजा की रक्षा भी धर्मरक्षा का एक अंग है। प्रजा को दूसरों से जब कष्ट उठाने पड़ते हैं या उसे हिंसा का शिकार बनना पड़ता है, तब उसके निवारण के लिए यह अनिवार्य हो जाता है।" 44 'क्या अहिंसक ढंग से निवारण करना सम्भव नहीं ?" H 'यदि इस तरह हिंसा के बिना निवारण सम्भव हो जाता तो कभी युद्ध ही न होता. अम्माजी । " " मतलब यह कि युद्ध अनिवार्य है - यही न?" "मनुष्य जब तक स्वार्थ एवं लिप्सा से मुक्त नहीं होगा तब तक यह अनिवार्य ही लगता है। " EL 'भगवान् बुद्ध ने भी यही बात कहीं कि हमारे सभी दुःख क्लेश का कारण ये ही स्वार्थ और लिप्सा हैं। " "महापुरुष जो भी कहते हैं वह अनुकरणीय हैं, अम्माजी। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सभी व्यक्ति महान नहीं होते।" 'महापुरुषों के उपदेश का प्रयोजन क्या है ?" "केवल उपदेश से कोई प्रयोजन नहीं सधता । उसके अनुष्ठान से प्रयोजन की सिद्धि होती है। और फिर, अनुकरण मानव स्वभाव है। हाव-भाव, चाल-चलन, रीति-नीति, बोल-चाल, भाषा-बोली - सब कुछ अनुकरण से ही तो हम सीखते हैं। महापुरुष जो उपदेश देते हैं उसका वे स्वयं अनुष्ठान भी करते हैं। तभी तो वे महात्मा कहलाते हैं। लोग बड़ी आस्था से उनके मार्ग का अनुसरण करते हैं। परन्तु अनुसरण की यह प्रक्रिया पीढ़ी-दर-पीढ़ी शिथिल होकर दुर्बल होने लगती है। उसमें वह शक्ति या प्रभाव कम हो जाता हैं जो आरम्भ में था। तब हम, जो इस शैथिल्य के स्वयं कारण हैं, उस तथाकथित धर्म के विरुद्ध नारे लगाने लगते हैं। कुछ नयी चीज की खोज करने लगते हैं। जो इस नवीनता की ओर हमें आकर्षित कर लेते हैं उनका हम अनुसरण करने लगते हैं। उसे अपनी स्वीकृति देते हैं। उस नवीनता को दर्शानेवाले व्यक्ति को महापुरुष की उपाधि देते हैं। यह एक चक्र है जो सदा घूमता रहता है। रूढ़िगत होकर प्रचलित सात्त्विक भावनाओं को इस नयी रोशनी में नया जामा पहनाकर, नया नाम देकर इसे उस पुराने से भिन्न मानकर उस पर गर्व करते हैं। परन्तु गहरे पैठने पर दोनों में अभिन्नता ही पाते हैं। तब समझते हैं दोनों एक हैं। उस तब से इस अब तक सब 128 :: महादेवी शान्तला 1
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy