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प्रस्तावना
प्रस्थापक आचार्य कुन्दकुन्द, आ. पूज्यपाद, आ. अमितगति एवं आ. योगीन्दुदेव की पावन परम्परा में आध्यात्मिक सन्त मुनि रामसिंह का जन्म हुआ था। ‘पाहुडदोहा' उनकी एक अध्यात्मप्रधान रचना है। डॉ. आ.ने. उपाध्ये के विचार में 'परमात्मप्रकाश' की भाँति यह एक रहस्यवादी रचना है, जिसमें सन्त कवि ने आत्मा की यथार्थता को भलीभाँति रेखांकित किया है। ‘पाहुडदोहा' (दोहा. 26) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बिना अध्यात्म के (तत्त्वज्ञान के) मन में भ्रान्ति बनी रहती है, विपरीत मान्यता पनपती रहती है। जहाँ संशय, भ्रम, विपरीतता है, वहीं अज्ञान है। मध्ययुगीन जैन सन्त कवियों ने रूढ़िवाद, पाखण्ड और बाह्य आडम्बर के नाम पर प्रचलित मिथ्या मान्यताओं का प्रबल खण्डन किया। यथार्थ में आत्मा के स्वरूप को समझने के लिए, अनुभव करने के लिए किसी बाहरी कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है। इसे ध्यान में रखकर ही कर्मकाण्ड का उपहास किया गया है। जिनमत में संयम भरण करने से पूज्यपना होता है। अतः जिन देवी-देवताओं में संयम नहीं है, वे पूज्य नहीं है। यथार्थ में वीतरागी देव, गुरु, धर्म और आगम (श्रुत) पूज्य हैं, आसनावात करने योग्य हैं। उनके सिवाय देव जाति में उत्पन्न धरणेन्द्र, पदमावती, चक्रेश्वरी जैसे देव-देवियाँ तथा यक्षिणी-यक्ष आदि कोई पूजने योग्य नहीं हैं। जो दुनिया के दुःख-सन्तापों से बचने के लिए वीतराग प्रभु के चरणों का आश्रय . लेने के लिए जिन-मन्दिर रूपी वृक्ष के नीचे पहुँचता है, वह अवश्य ही छायारूपी
शीतलता, शान्ति का अनुभव करता है, आनन्द को प्राप्त करता है। अतः जिनदेव, जिनधर्म, जिनमूर्ति, जिनालय, अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और निर्ग्रन्थ साधु ही .पूज्य हैं। 'पाहुड' शब्द का अर्थ... 'पाहुड' शब्द के अनेक अर्थ हैं-(1) जो पदों से स्फुट (प्रकट) है, (2) जो तीर्थंकरों के द्वारा प्रस्थापित किया गया है, (3) भेंट, उपहार, (4) श्रुतज्ञान, इत्यादि। लेकिन यहाँ पर 'मेंट' अर्थ प्रासंगिक नहीं है। ‘पाहुड' का अर्थ है-तीर्थंकरों के द्वारा जो प्रस्थापित किया गया है अथवा जिसका स्फुट पदों से व्याख्यान किया गया
प्रस्तावना : 3