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जो इन्द्रिय और मन को जीते बिना तथा ज्ञान-वैराग्य प्राप्त हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति के लिए ध्यान का अभ्यास करते हैं, वे मूर्ख अपने दोनों भव बिगाड़ते हैं। (ज्ञानार्णव, 20, 22) वास्तव में इन्द्रियों के भोग सार रहित तुच्छ जीर्ण तृण के समान हैं, भय को उत्पन्न करने वाले हैं, आकुलतामय कष्ट करने वाले हैं और निरन्तर विनाशी हैं। इन्द्रियों के विषयों का सेवन कर जीव दुर्गति को प्राप्त होता है, क्लेश को भोगता है, इसलिए विद्वानों के द्वारा निन्दनीय है। यदि इन्द्रियों तथा विषय-कषायों से वास्तविक सुख मिलने लगे, तो फिर ज्ञान से क्या मिलेगा? यथार्थ में आत्मज्ञान ही सच्चा सुखदायी है। आचार्य कुलधर कहते हैं-काम के समान रोग नहीं है, मोह के समान शत्रु नहीं है, क्रोध के समान अग्नि नहीं है और ज्ञान के बराबर सुख नहीं है। (सारसमुच्चय, 27) भट्टारक ज्ञानभूषण का कथन है कि इन्द्रियजन्य सुख सुख नहीं है, किन्तु जो तृष्णा रूपी आग उत्पन्न होती है, उसकी वेदना का क्षणिक उपाय है। सुख तो आत्मा में विशुद्ध परिणाम तथा निराकुलता युक्त आत्मा में स्थित होने पर उपलब्ध होता है। ध्यान तो निज शुद्धात्मा का करना कहा है। पाँचों परमेष्ठी निज शुद्धात्मा का आश्रय लेकर अपने शुद्धात्म-स्वभाव में लीन होकर स्थिर होते हैं।
विसयकसाय चएवि वढ अप्पहँ मणु वि धरेहि । चूरिवि चउगइ णित्तुलउ परमप्पउ पावेहि ॥199॥
शब्दार्थ-विसयकसाय-विषय- कषायों को; चएवि-छोड़कर; वढ-मूर्ख; अप्पहं-आत्मा में; मणु वि-मन को भी (उपयोग); धरेहि-धरो, लगाओ; चूरिवि-चूरकर, नाश कर; चउगइ-चारों गतियों (का); णित्तुलउ-अतुल; परमप्पउ-परमपद; पावेहि-प्राप्त करो।
अर्थ-हे मूर्ख! विषय-कषाय को छोड़ कर आत्मा में मन को लगा कर चारों गति का नाश कर अतुल परमपद को प्राप्त करो।
भावार्थ-आचार्य गुणभद्र कहते हैं-हाय! बहुत दुःख की बात है कि संसार रूपी कत्लखाने में पापी और क्रोधी ऐसे इन्द्रिय विषय रूप चाण्डालों ने चारों तरफ राग रूपी भयंकर अग्नि सुलगा दी है, जिससे चारों तरफ से भय प्राप्त और अत्यन्त व्याकुल हुए पुरुष रूपी हिरन अपने बचाव के लिए अन्तिम शरण चाहते, खोजते हुए काम रूपी चाण्डाल द्वारा बनाए गये स्त्री रूपी कपट स्थान में जा-जाकर मरण को प्राप्त होते हैं। (आत्मानुशासन, 130)यह निश्चित है कि इन्द्रियों के भोग भोगने
1. अ, द, ब, स चएवि; क चएहि; 2. अ, ब अप्पह; क, द, स अप्पह; 3. अ धरेइ; क, द, स धरेहि; ब धरेहिं; 4. अ, द, ब, स चूरहि; क चूरिवि; 5. अ पावेहिं; क, द, ब, स पावेहि।
234 : पाहुडदोहा