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________________ शास्त्र, गुरु और धर्म को मानने वाली परम्परा। (2) भूमिका के अनुसार शुद्धाचरण के साथ, शुद्ध भोजन-पान तथा नीति-न्याय से जीवन-निर्वाह करने वाली पद्धति। और (3) शुद्धनय की विषयभूत शुद्धात्मानुभूति पूर्वक मोक्षमार्ग मानने वाली पद्धति। शुद्धाम्नाय की परम्परा में चारों ही अनुयोग मूल में शुद्धता या आत्म-शुद्धि के उपदेशक तथा विधि-प्रतिपादक हैं। वस्तुतः दृष्टि में द्रव्यानुयोग, साधना में चरणानुयोग, परिणाम में करणानुयोग और बाह्य जीवन में प्रथमानुयोग की प्रतिपादक मूल आग्नाय की परम्परा है। अतः हे वीतराग प्रभु! जो तेरा मार्ग है, पन्थ है, वही मेरा मार्ग है। आप पूर्ण वीतरागी हैं। इसलिये हम भी वीतरागता के श्रद्धानी हैं। और यही कारण है कि हम निर्लेप जिन-प्रतिमा का दर्शन-पूजन करते हैं। आलोचना-पाठ के कर्ता पं. जौहरीलाल कहते हैं-"या लोक मैं चंदन, केशरादि सुगंध द्रव्यनि का लेपन सरागी जीवनि के देखिये हैं। अर ये वीतराग के कैसे संभवे? बहुरि दूसरे सग्रंथपणा का दूषण आवै है। अर ये निग्रंथ तिल के तुष मात्र हू के त्यागी। वास्तव में केशर, चन्दन आदि परिग्रह हैं। अतः वीतराग छवि वाले जिन-बिम्बों पर लेप करने का विधान नहीं है। वीतराग प्रतिमा पर चन्दन-केशर-लगाने से वीतरागता का प्रतीक-चिन्ह बिगड़ जाता है। अतः तेरापन्थ आम्नाय वाले वीतराग प्रतिमा ही पूजते हैं। यही शुद्धि का विधान है। अप्पापरह' ण मेलियउ आवागमणु ण भग्गु।' तुस कंडतह कालु गउ तंदुलु हत्थि ण' लग्गु 186॥ शब्दार्थ-अप्पापरहं-आपा-पर (को); ण मेलयउ-नहीं मिलाया; आवागमणु-आना-जाना, आवागमन; ण भग्गु-भग्न नहीं हुआ; तुस-तुष, छिलका; कंडतह-कूटते हुए; कालु-समय; गउ-चला गया; तंदुलु-चावल; हत्थि-हाथ में; ण लग्गु-नहीं लगा (मिला)। अर्थ-वास्तव में न तो आत्मा और पर का आज तक मेल हो सका और न आवागमन ही समाप्त हुआ। अभी तक का समय तुष कूटते ही बिताया है, क्योंकि एक भी चावल का दाना हाथ नहीं लगा। ___ भावार्थ-यद्यपि आत्मा अनादिकाल से जड़ किंवा पुद्गल-कर्मों के साथ रह 1. द्रष्टव्य है-चेतनविलास। 1. अ, ब अप्पापरह; क, द, स अप्पापरहं; 2. अ, द, ब, स मेलियउ; क मेलयउ; 3. अ तुसुः क, द, ब, स तुस; 4. अ, क, द, स कंडतह; 5. अ, ब तंदुल; क, द, स तंदुलु; 6. अ, द, स हत्थि; व हत्थुः क अत्यि; 7. अ णहिं; क, द, ब, स ण। 218 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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