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आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि मैं यह प्रत्यक्ष, अखण्ड, अनन्त, चिन्मात्र ज्योति आत्मा अनादि-अनन्त, नित्य उदय रूप, विज्ञान - घन स्वभाव भावत्व के कारण एक हूँ । अतः यह सुनिश्चित है कि जो एक है, वह अखण्ड है और जो अखण्ड है, वह शुद्ध है। अतएव वह एक ही आश्रय लेने योग्य है।
तित्थ तित्थ भमंतयहं संताविज्जइ देहु | अप्पे ' अप्पा झाइयइ' णिव्वाणह पउ देहु
॥ 179॥
शब्दार्थ - तित्थइं- तीर्थ से; तित्थ - तीर्थ (तक); भमंतयहं - भ्रमण करते हुए (के); संताविज्जइ - संतप्त किया जाता है; देहु-शरीर; अप्पे-आत्मा में; अप्पा - आत्मा (का); झाइयइ - ध्यान करने से; णिव्वाणह - निर्वाण का पउ–पद; देहु–देवे।
अर्थ - एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ तक भ्रमण करने से केवल शरीर को सन्ताप पहुँचता है। आत्मा में आत्मा का ध्यान करके मोक्ष-मार्ग में आगे बढ़ना चाहिए । भावार्थ- आचार्य पद्मनन्दि कहते हैं कि हे प्रभो ! जिस समय आपका जन्माभिषेक सुमेरु पर्वत पर हुआ था, उस समय उस स्नान के जल के सम्बन्ध से मेरु तीर्थ बन गया था। इसलिए सूर्य, चन्द्रमा आदि तभी से उस पर्वत की प्रदक्षिणा आज तक बराबर सदा कर रहे हैं । ( पद्मनन्दिपंचविंशति, ऋषभस्तोत्र, 10 )
वास्तव में तीर्थ तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है, लेकिन मूर्ख लोग अपने पापों और दुर्भावों की कृपा से न तो निश्चयरूपी सरोवर को देख पाते : हैं और न ज्ञानरूप समुद्र उनको नजर आता है। यही नहीं, उन्होंने कहीं पर भी समता रूपी विशुद्ध नदी को भी नहीं देखा । इसलिए जन साधारण वास्तविक तीर्थों को छोड़कर गंगा, सरस्वती, क्षिप्रा आदि तीर्थों में स्नान करते हैं और यह मानते हैं कि स्नान करके हम पवित्र हो गये हैं । ( वही, स्नानाष्टक, 5)
अधिकतर लोग यही समझते हैं कि जल से स्नान करने पर शरीर शुद्ध हो जाता है । किन्तु वास्तविकता यह है कि यदि सभी तीर्थों के जल से शरीर को धोया जाए, तो रंचमात्र भी शुद्ध नहीं होगा। पं. सदासुखदासजी के शब्दों में “जगत् में कपूर, चन्दन, पुष्प, तीर्थनि के जलादिक हैं, ते देह के स्पर्श मात्र तैं मलीन दुर्गन्ध हो जाए सो देह कैसे पवित्र होय? जेते जगत् में अपवित्र वस्तु हैं ते देह के एक-एक अवयव
1. अ अप्पिं; क, द, स अप्पें; ब अप्पे; 2. अ झाईय; क, द, स झाइयां; ब झास; 3. अ पय, क, द, ब, स पउ; 4. अ, ब एहु; क, द, स देहु ।
पाहुडदोहा : 209