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गया है। विभिन्न शास्त्रपाठी विद्वान् अनेक शास्त्रों को पढ़ लेते हैं, लेकिन आत्मा को नहीं पढ़ पाते हैं। इसलिए यह उपदेश दिया जाता है कि सभी शास्त्रों में एक आत्मा को पढ़ना ही प्रयोजन था, लेकिन बहुश्रुतविद्वान् होकर भी जिसने आत्मा को नहीं पढ़ा अर्थात् आत्मानुभव में आत्मा को नहीं जाना, नहीं पहचाना, उसकी विद्वता शब्द-संग्रह मात्र तक सीमित समझना चाहिए। अध्यात्मशास्त्र में परमार्थ को प्रधान कर कथन किया जाता है। इसलिए उसकी दृष्टि में ऐसे शास्त्रपाठी विद्वान् भी पण्डित नहीं होते। क्योंकि उनको आत्मा-अनात्मा, बन्ध-मोक्ष का ज्ञान नहीं है। पं. कविवर बनारसीदास के शब्दों में
जैसे मुगध धान पहिचान; तुष-तन्दुलको भेद न जाने। तैसें मूढमती विवहारी; लखें न बन्ध-मोख गति न्यारी ॥
-समयसार. सर्वविशुद्धि, पद 121 अर्थात्-जिस प्रकार भोला मनुष्य धान को तो पहचानता है, किन्तु छिल्के और चावल का अन्तर नहीं जानता है; ठीक उसी प्रकार बाहरी क्रियाओं में लीन रहनेवाला अज्ञानी बन्ध और मोक्ष की भित्रता को नहीं समझता है।
वास्तव में विद्वान् शास्त्र पढ़कर प्रमाण दृष्टि से यह तो समझते हैं कि धान क्या है, लेकिन उन्होंने छिलके से रहित कर चावल की यथार्थ प्रतीति नहीं की है, इसलिए वह अज्ञानी कहलाता है। पंडियपंडिय पंडिया कणु छंडिवि तुस कंडिया'। अत्थे गंथे तुट्ठो सि परमत्थु ण जाणहि मूढो सि ॥86॥
शब्दार्थ-पंडियपंडिय-पण्डितों (में) पण्डित; पंडिया-(ज्ञानी) पण्डित; कणु-(अनाज के) दाने (को); छंडिवि-छोड़कर; तुस-भूसा; कंडिया-कूटा है; अत्थे–अर्थ में, धन में; तुट्ठो सि-सन्तुष्ट हो; परमत्थु-परमार्थ; ण जाणहि-नहीं जानते हो; मूढो सि-मूढ़ हो।
अर्थ-हे पण्डितों में श्रेष्ठ पण्डित! तुमने कण को छोड़ भूसे को कूटा है। तुम ग्रन्थ और उसके अर्थ में सन्तुष्ट हो, किन्तु परमार्थ को नहीं जानते। इसलिए मूढ़ हो।
भावार्थ-वास्तव में व्यवहार में रचे-पचे जीवों को परमार्थ की खबर नहीं है। परमार्थ क्या होता है-यह व्यवहारी नहीं जानता; भले ही वह पण्डित क्यों न हो?
1. अ, क, ब खंडिया; द, स कंडिया; 2. अ, क अत्थे; द अत्थो; व अथे; 3. अ, द, ब, स तुट्ठो; क तुट्टे; 4. अ जाणइ; ब परमत्थं ण जाणण; क, द, स जाणहि।
110 : पाहुडदोहा