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- नीति साश्यामृतम....-.---.-.... "(कर्म) कार्यों को (कुशलमतिभिः) विवेकशील बुद्धिमानों को (न) नहीं (समाचरणीयम्) करना चाहिए ।
प्राणान्त काल आने पर भी श्रेष्ठ बुद्धि वालों को अनुचित कार्यों को नहीं करना चाहिए । स्वस्थ अवस्था की तो बात ही क्या है ?
वियोगार्थ :- भव्य जीवों को निरन्तर सदाचरण में प्रवृत्ति करना चाहिए । आचरण शुद्धि जीवन का सार है। सदाचार से कुलाचार का परिज्ञान होता है । कुलीनजन दुराचार या अत्याचार से दूर रहते हैं । विवेकी पुरुष स्वस्थावस्था की बात छोड़ दो मरण काल भी आ उपस्थित हो तो भी अन्याय पथ पर नहीं जाते । कितनी ही भयंकर आपत्तियाँ आ जायें तो भी न्याय मार्ग से तनिक भी च्युत नहीं होते । यहाँ यही आचार्य श्री चेतावनी दे रहे हैं कि विपदापन्न होने पर भी सद्विवेक नहीं त्यागना चाहिए। देवल विद्वान ने भी कहा है -
श्रीमद्भिर्नाशुभं कर्म प्राणत्यागेऽपि संस्थिते ।
इह लोके यतो निन्दा परलोके ऽधमा गतिः॥ अर्थ :- प्रज्ञा प्रधान मनीषियों को प्राणनाश का अवसर आने पर भी पाप कर्म नहीं करना चाहिए । क्योंकि उससे इस लोक में निन्दा और परलोक में अधम-नीचगति प्राप्त होती है । जो विपदाओं का सामना करता हैं विप उससे भीत हो जाती हैं -
विपदा को विपदा नहीं, माने जब नर आप । विपदा में पड लौटतीं, विपदाएं तब आप ।।३॥ करे विपद का सामना, भैंसा सम जी तोड़ तो उसकी सब आपदा, हटती आशा छोड़ ।।4।। विपदा की सैना बड़ी, खड़ी सुसजित देख । नहीं तजै जो धैर्य को, डरें उसे वे देख ।।5॥
कुरल. का. अर्थ :- जिस समय शूरवीर विपत्ति को विपत्ति नहीं मानता तो स्वयं विपदाएँ ही, विपत्ति में पड़कर भाग खड़ी होती हैं । जो भैंसा के समान जी जान लगाकर आपत्तियों का साहस से सामना करता है उसकी आपदाएँ निराश होकर भाग जाती हैं । अनेकों संकटों रूपी सेना को देखकर भी जो धैर्य नहीं तजता उस वीरभट को देखते ही वह सेना पराजित हो सर झुका देती है । अर्थात् आपत्तियों को ही परास्त होना पड़ता है । सारांश यह है कि संकटों में मुस्कुराना सीखो न कि रोना । अतएव सदाचार करो--
सदाचार सूचित करे, नर का उत्तम वंश
बनता नर दुष्कर्म से, अधम-श्रेणि का वंश ।।3।। अर्थ :- सदाचार मनुष्य की उत्तमता का घोतक है । दुष्कर्म नीच कुल का प्रतीक है। अतएव सदैव कठिन आपदाओं / में भी सच्चरित्रता नहीं त्यागनी चाहिए ।