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________________ नीति वाक्यामृतम् अर्थात् इस भूमण्डल पर कथावाचकों की भाँति धर्म के मर्म को समझाने वाले वक्ता बहुत आसानी से मिल जाते हैं। परन्तु धर्म का स्वयं अनुष्ठान करने वाले सत्पुरुष महानदुर्लभ हैं । करनी और कथनी में जमीन-आसमान जैसा अन्तर है । जो गंभीर तत्त्वज्ञ विशेषज्ञ होते हैं वे करते हैं और जो बक-झक करने वाले होते हैं वे मात्र हल्ला--गुल्ला कर अपने को धर्म नेता सिद्ध करने का असफल प्रयास करते हैं । सारांश यह है कि कथनापेक्षा करना उत्तम है । कहा भी है - कम कहना सुनना अधिक यह है परम विवेक इसीलिए विधि ने दिये कान दोय जीभ एक ।। अर्थात् नाम कर्म रूप विधि बड़ा चतुर है । वह पुरुषों को सावधान करता है कि अधिक बोलने से क्षति होती है । इसीलिए उसने मनुष्य के दो कान बनाये और जिह्वा एक रची । सुनना अधिक बोलना कम । अभिप्राय इतना ही है कधनी के अनुसार करनी भी होने लगे तो मनुष्य के जीवन में सन्तुलन बना रहता है और प्रशस्त मार्ग पर बढ़ने का अवसर प्राप्त हो जाता है । ज्ञान वही सार्थक है जो परोपकार और स्वोपकार दोनों सिद्ध करे । ज्ञान का फल क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में पूज्यपादस्वामी कहते हैं - "ज्ञान फलं सौख्यमच्यवनम्" ज्ञान का फल अक्षय सुख प्राप्त कराना है । लोभाविष्ट को यह फल कहाँ ? अर्थात् वह तो मात्र वितार्जन में ही अपने ज्ञान को व्यय कर देता है । ज्ञान से आत्म तुष्टि प्राप्त करना चाहिए । "तप और दान से प्राप्त फल" "प्रत्यहं किमपि नियमेन प्रयच्छतस्तपस्यतो वा भवन्त्यवश्यं महीयांसः परे लोकाः ॥29॥" अन्वयार्थ :- (लोकाः) मानव (प्रत्यहं) प्रतिदिन (नियमन) नियमपूर्वक (किमपि) कुछ भी (प्रयच्छतः) सुपात्रदान देते हैं (वा) अथवा (तपस्यतः) तपश्चरण करते हैं (ते) वे मनुष्य (परे) परलोक में-अगले भव में (अवश्यम्) अवश्य ही (महीयांसः) महर्द्धिधारी (भवन्ति) होते हैं । नियमित रूप से दान, पूजा, तप करने वाला भव्यात्मा परभव (अगलेभव) में उच्च स्वर्गों में उत्तम विभूति युत होकर आनन्द से निरुत्सुक निरन्तर भोग भोगते हैं। अनासक्त' कर परम्परा से मुक्ति सुख भी प्राप्त कर लेते हैं । विशेषार्थ :- नीतिकाल चारायण ने भी कहा है ... नित्यं दानप्रवृत्तस्य तपोयुक्तस्य देहिनः । सत्यात्रंवाथ कालो वा स स्याङ्घन गतिर्वरा ।। अर्थ :- सिद्धान्त का समर्थन करते हुए कहा है कि सदैव दान और तप में प्रवृत्त पुरुष को उसका दान और तप स्वर्ग सम्पदा प्रदान कराता है । अर्थात् वह उत्तमगति स्वर्ग को प्राप्त करता है । "तप्येतेति तपः" जिसे तपा जाये वह तप है । कहा है - सब विध हिंसा त्यागकर बनना करुणाधार । सब दुःखों को शान्ति से, सहना तप का सार ।। अर्थात् शान्तिपूर्वक कष्ट सहन करना और दयाभाव रखना अर्थात् हिंसा न करना तप है और साम्यभाव हो । . .. 32
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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