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________________ नीति वाक्यामृतम् (32) प्रकीर्णक समुद्देश प्रकीर्णक व राजा का लक्षण, विरक्त एवं अनुरक्त के चिन्ह, काव्य के गुण, दोष, कवियों के भेद तथा लाभ, गीत, वाद्य तथा नृत्य गुण : समुद्र इव प्रकीर्णक सूक्तरत्नविन्यासनिबन्धनं प्रकीर्णकम् ॥11॥ वर्णपदवाक्य प्रमाण प्रयोग निष्णातमतिः सुमुखः सुव्यक्तोमधुरगम्भीरध्वनिः प्रगल्भः प्रतिभावान् सम्यगृहापोहावधारणगमकशक्तिसम्पन्नः संप्रज्ञात समस्त लिपि भाषा वर्णाश्रमसमयस्वपरव्यवहारस्थितिराशुलेखनवाचनसमर्थश्चेति सन्धि विग्रहिकगुणाः ॥ 2 ॥ तथा व्यवच्छेदो व्याकुलत्वं मुखेवैरस्यमनवेक्षणं स्थान त्यागः साध्वाचरितेऽपि दोषोदद्भावनं विज्ञप्ते च मौनम क्षमाकालयापनमदर्शनम् । वृक्ष्याभ्युपगमश्चेति विरक्तलिंगानि ॥3 ॥ दूरादेवेक्षणं, मुख प्रसादः संप्रश्नेष्वादरः प्रियेषु वस्तुषुस्मरणं, परोक्षेगुणग्रहणं तत्परिवारस्य सदानुवृत्तिरित्यनुरक्त लिङ्गानि ॥ 14 ॥ श्रुतिसुखत्वमपूर्वाविरुद्धार्थातिशययुक्तत्व मुभयालंकार सम्पन्नत्वम न्यूनाधिक वचनत्वमतिव्यक्तान्वयत्वमितिकाव्यस्यगुणाः ॥15॥ अतिपरुषवचन विन्यासत्वमनून्वितगतार्थत्वं दुर्बोधानुपपन्नपदोपन्यासमयथार्थयति विन्यासत्वमभिधानाभिधेय शून्यत्वमिति का व्यस्य दोषाः 116 ॥ वचन कविरर्थकविरुमयकविश्चित्रकविर्वर्णकविर्दुष्करकविररोचकी सतुषाभ्यवहारी चेत्यष्टौकवयः |17 || मनः प्रसादः कलासुकौशलं सुखेन चतुर्वर्गविषयाव्युत्पत्तिरासंसारं च यश इति कविसंग्रहस्यफलं 118 ॥ आलति शुद्धि र्माधुर्यातिशयः प्रयोग सौन्दर्यमतीवमसृणतास्थान कम्पित कुहरितादिभावो रागान्तर संक्रान्तिः परिगृहीतरागनिर्वाहो हृदयग्राहिता चेतिगीतस्यगुणाः ॥ 19 ॥ समत्वं तालानुयायित्वंगेयाभिनेयानुगतत्वं श्लक्ष्णत्वं प्रव्यक्तयति प्रयोगत्वंश्रुति सुखावहत्वं चेतिवाद्यगुणाः । 110 ॥ दृष्टि हस्तपादक्रियासु समसमायोगः संगीतकानुगतत्वं सुश्लिष्ट ललिताभिनयांग हारप्रयोगभावो सरभाव वृत्ति लावण्यभावइति नृत्यगुणाः ॥ ॥11॥ विशेषार्थ :- जिस प्रकार रत्नाकर (सागर) में अनन्त अनेक प्रकार के रत्न विखरे रहते हैं उसी प्रकार सुभाषित रूप रत्नों की रचना का स्थान है उसे "प्रकीर्णक" कहते हैं ।। अर्थात् जिस प्रकार समुद्र में फैली हुयी प्रचुर रत्नराशि वर्तमान होती है, उसी प्रकार प्रकीर्णक काव्य समुद्र में भी फैली हुयी सुभाषित रत्नराशि पाई जाती है ।।1 ॥ राजा के अपने विशेष गुण होते हैं यथा वर्ण, पद, वाक्य और तर्कशास्त्र आदि में परिपक्व बुद्धि होना चाहिए स्पष्ट और सार्थक बोलने वाला मधुर और गंभीर वाणी होना चाहिए । जो चतुर हो, प्रतिभा सम्पन्न, समस्त देशों की लिपि और भाषा का जानकार, योग्यायोग्य विचारक धारणाशक्ति सम्पन्न तथा चारो वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र) व चार आश्रमों (ब्रह्मचारी आदि) के शास्त्र के रहस्य का ज्ञाता, समस्त स्व व पर के व्यवहार का जानकार 578
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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