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नीति वाक्यामृतम्
युक्तिपूर्वक कन्यावरण (विवाह) निश्चय से अग्निदेव व ब्राह्मण की साक्षीपूर्वक वर द्वारा पाणिग्रहण किया जाता है उसे विवाह कहते हैं । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि विवाह कन्या का ही होता है विधवा का या परित्यक्ता का नहीं । जो ऐसा करते हैं वे आगम, धर्म और समाज विरोधी हैं ।।3।।
विवाह के 8 भेद हैं - 1. ब्राम्य, 2. दैव, 3. आर्ष, 4. प्राजापत्य, 5. गान्धर्व, 6. आसुर, 7. पैशाच और 8. राक्षस विवाह ।।
जिसमें कन्या के पिता आदि अपनी शक्ति अनुसार कन्या के वस्त्राभूषणों से अलंकृत करके 'वर' को प्रदान करते हैं उसे ब्राह्मय विवाह कहते हैं 14॥ भारद्वाज एवं अन्य विद्वान ने भी कहा है :
वरणं युक्तितो यच्च वह्नि ब्राह्मणसाक्षिकम् । विवाहः प्रोच्यते शुद्धो योऽन्यस्य स्याच्च विप्लवः ।।। ब्राह्मयो दैवस्त थैवार्थः प्राजापत्यस्तथापरः । गन्धर्वश्चासुरश्चैव पैशाचो राक्षसस्तशा 1॥
यज्ञ कराने वाले यज्ञ के विद्वान पण्डित यज्ञ कराते हैं उसके निमित्त से दक्षिणा के रूप संरक्षकों द्वारा जो कन्या दी जाती है वह दैव विवाह कहलाता है । 5 ॥ जिसमें गौ मिथन (गाय बैल का जोड़ा) आदि दहेज में देकर कन्या दी जाती है उसे आर्ष विवाह कहते हैं 16 ॥ कहा भी है :
कृत्वा यज्ञ विधानं तु यो ददाति च ऋत्विजः । समाप्तौ दक्षिणां कन्यां दैवं वैवाहिक हितत्।।1॥
कन्यां दत्वा पुनर्दद्याधर गोमिथुन परम् ।
वराय दीयते सोऽत्र विवाहश्चार्ष संज्ञितः ॥1॥ "तू महाभाग्यशाली की धर्मचारिणी अर्थात् व्यावहारिक धार्मिक क्रियाओं में सहायता पहुँचाने वाली सहधर्मिणीधर्मपत्नी हो" इस प्रकार नियोग करके जबर कन्या प्रदान की जाती है वह "प्राजापत्य" विवाह कहलाता है ॥7॥ गुरु ने कहा है :
धनिनो धनिनं यत्र विषये कन्यकामिह । सन्तानाय स विज्ञेयः प्राजापत्यो मनीषिभिः ॥1॥
अर्थात् धनेश्वर किसी योग्य धनवान को अपनी कन्या प्रदान करता है उसे "प्राजापत्य विवाह" कहा 11॥
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