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________________ नीति वाक्यामृतम् 1 राज्यं च दुर्बलो वापि स्थायी स्याद्वलवत्तरः सकाशाद्याविनश्चेत् स्यात् सुनद्धः सुचारकः 117 जो राजा संग्राम भूमि में परास्त हुए शरणागत, भयभीत, शस्त्रविहीन, रक्षा का इच्छुक हुए शत्रु का घात करता है वह ब्रह्मधाती है 1175 | कहा भी हैं : संग्रामभूमि से कर छोड़ देना चाहिए भग्नशस्त्र तथा त्रस्तं तथास्मीति च वादिनम् । यो हन्याद्वैरिणं सख्ये ब्रह्महत्यां समश्नुते ॥ ॥ ॥ जैमिनि ।। पलायन करने वाले जो शत्रु विजयी द्वारा पकड़ लिए गये हैं, उनका वस्त्रादि द्वारा सम्मान 161 कहा भी है: संग्रामे वैरिणो ये च यायिनः स्थायिनो वृताः । गृहीता मोचनीयास्ते क्षात्रधर्मेण पूजिताः ॥11 ॥ भारद्वाजः ॥ जो शत्रु बन्दी किये गये हैं उनके साथ स्थायी - युद्ध करने वाले शत्रुओं के साथ भेंट कराना सेनापति के अधिकार में होता है । वह चाहे और खतरा न समझे तो मिलने दे अन्यथा नहीं 179 ॥ बुद्धि सरिता का बहाव, वचन प्रतिष्ठा, सदसद् पुरुषों का व्यवहार, पूज्यता का साधन : - मतिनदीयं नाम सर्वेषां प्राणिमुभयतो बहति पापाय धर्माय च तत्राद्य स्त्रोतोऽतीव सुलभम्, दुर्लभं तद् द्वितीयमिति ॥78 ॥ सत्येनापि शप्तव्यं महतामभयप्रदान वचनमेव शपथ: 1179 || सतामसतां च वचनायत्ताः खलु सर्वे व्यवहाराः स एव सर्व लोक महनीयो यस्य वच्चनमन्यमनस्कतयाप्यायातं भवति शासनम् 1180 ॥ विशेषार्थ :- संसारी प्राणी की बुद्धि रूपी सरिता दो धाराओं में प्रवाहित होती रहती है। 1. पुण्य और 2. पाप । इसमें से पाप रूप बहाव प्रथम समझना चाहिए क्योंकि यह बिना प्रयास सहज सुलभता से बहता रहता है । परन्तु पुण्य रूप- धर्मपथ पर बहने वाला प्रवाह महादुर्लभ है कठिन प्रयत्नसाध्य है । अन्याय, व्यसन, अनाचार, परपीड़ादि में मन रोकने पर भी दौड़-दौड़ जाता है, शील संयम, तप, त्याग, जप, तपादि में बलात्प्रेरित किये जाने पर भी नहीं लगता । सदाचार में प्रयत्नशील नहीं होता । अतः कल्याण चाहने वालों को अपनी बुद्धि अनीति व अनाचार से हटाकर नीति व सदाचार की ओर प्रेरित करने में प्रयत्नशील रहना चाहिए 178 || कहा भी है "हेये स्वयं सती बुद्धिर्यनेनाप्यसती शुभे ।।" त्याज्य में स्वयं बुद्धि जाती है उपादेय में प्रयत्न से भी नहीं जाती ।। " वादीभसिंह सूरि" ।। - " नीतिकुशल मनुष्य को विश्वस्त बनने के लिए सदैव सत्य शपथ खानी चाहिए असत्य कभी नहीं खाये । अभयदान प्रदायक प्रामाणिक वचन बोलना ही महापुरुषों की सौगंध ( कसमखाना) है, अन्य नहीं 179 ॥ संसार में सत्पुरुषों एवं असत्पुरुषों के समस्त व्यवहार उनके वचनों पर आधारित होते हैं। अतः नीतिज्ञ पुरुषों को अपने वचनानुसार कर्त्तव्य करना चाहिए। जिसके वचन मानसिक उपयोग के बिना भी कहे हुए स्टाम्प (लिखित) के समान प्रामाणिक सत्य होते हैं, वही पुरुष लोक में समस्त मनुष्यों द्वारा पूज्य होता है | 180 ॥ शुक्र ने भी कहा है : 566
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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