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________________ नीति वाक्यामृतम्। क्योंकि अपने नाश की आशंका से भीत होने से पराक्रमशक्ति का प्रयोग करता है । 166 || विदुर ने भी कहा है : भग्नः शत्रुर्न गन्तव्यः पृष्ठतो विजिगीषुणा । कदाचिच्छूरतां याति मरणे कृतनिश्चयः ॥1॥ विजयेच्छु देखता है कि शत्रु स्वाभिमानी है, शूरत्व ही जिसका धन है ऐसा सुभट है तो वह उसका दुरभिप्राय से सम्मान करता है । तब उसका छल समझ कर वह और अधिक कुपित होता है । उसका कोप बकरे की पूजा समान उबलता है । अर्थात् बलि चढाने के पूर्व की जाने वाली बकरे की पूजा उसे अधिक कुपित करती है, उसी प्रकार दुरभिप्राय से शत्रु द्वारा किया सम्मान भी शत्रु की क्रोधानल में घृताहुति का कार्य करता हैं । नैतिक राजा को कपट व्यवहार कर शत्रु को कुपित कर अपने को खतरे में नहीं डालना चाहिए 1167 || भागुरि ने भी यही अभिप्राय लिखा है : पायोचितदाने नच्छागेनापि प्ररुष्यति I चण्डिका बलवानभूपः स्वल्पयाऽपितथेज्यया ॥1॥ अर्ध वही है । समान शक्ति या अधिक शक्ति वाले के साथ युद्ध से हानि, धर्म, लोभ व असुर विजयी राजा का स्वरूप असुर विजयी के आश्रय से क्षति : 1 समस्यसमेनसह विग्रहे निश्चितं मरणं जये च सन्देहः आमं हि पत्रमामेनाभिहतमुभयतः क्षयं करोति । 168 || ज्यायसा सह विग्रहो हस्तिना पदाति युद्धमिव ॥169 ॥ स धर्म विजयी राजा यो विधेयमात्रेणैव सन्तुष्टः प्राणार्थमानेषु न व्यभिचरति । 170 ॥ स लोभ विजयी राजा यो द्रव्येण कृतप्रीति: प्राणाभिमानेषु न व्यभिचरति 1171॥ सोऽसुरविजयी यः प्राणार्थमानोपघातेन महीमभिलषति 1172 || असुर विजयिनः संश्रयः सूनागारे मृगप्रवेशइव 1173 ॥ विशेषार्थ :- दो समान शक्ति वाले शत्रुओं में संग्राम होने पर दोनों का मरण सुनिश्चि हैं और विजय प्राप्ति सन्देहास्पद होती है । निश्चय से कच्चे दो घड़े परस्पर टकरायें ताड़ित किये जाने पर दोनों का विनाश निश्चित है । 168 || भागुरी ने भी कहा है : समेनापि न योद्धव्यमित्युवाच वृहस्पतिः । अन्योन्याहतिना भंगो घटाभ्यां जायते यतः ।। 1 ॥ यदि पैदल सेना गज सेना के साथ समर-युद्ध करे तो निश्चित ही पैदल सैनिकों का संहार होगा । इसी प्रकार हीनशक्ति वाला विजयेच्छु भी अपने से अधिक बलवान शत्रु के साथ युद्ध करने से नष्ट ही होगा । अतः बलवान से युद्ध नहीं करना चाहिए | 169 || भारद्वाज ने भी कहा है : 564
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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