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________________ नीति वाक्यामृतम् जल दुर्गवती भूमिर्यस्य सैनस्य ५४० तः । पृष्ठ देशे भवेत्तस्य तन्महाश्वासरकारणम् । गुरु द्वारा - नीयमानोऽत्र यो नद्या तटस्थं वीक्षते नरम् । हेतुं तं मन्यते सोऽत्र जीवितस्य हितात्मनः ॥1॥ समरभूमि में संलग्न सेना को यदि क्वचित् कदाच अन्न नहीं मिले तो चल सकता है परन्तु नीर का साधन अवश्य होना चाहिए ।। अन्नाभाव में जल के सहारे से सेना अपना प्राण रक्षण कर सकती है ।231 अभिप्राय यह है कि विजिगीषु को जलयुक्त भूमि का आश्रय लेना चाहिए ।। भारद्वाज ने भी कहा है : अन्नाभावादपि प्रायो जीवितं न जलं बिना । तस्माद्युद्धं प्रकर्त्तव्यं जलं कृत्वा च पृष्ठतः ॥ शक्तिशाली के साथ युद्धःहानि, राज-कर्तव्य, मूर्ख का कार्य व दृष्टान्त : आत्मशक्तिभविज्ञायोत्साहाः शिरसा पर्वत भेदनमिव ॥24॥ सामसाध्यं युद्ध साध्यं न कुर्यात् ॥25॥ गुडादभिप्रेतसिद्धौ को नाम विषं भुजीत 1126 ॥अल्पव्ययभयात् सर्वनाशं करोति मूर्खः ।।27।का नाम कृतधीः शुल्कभयाद् भाण्डं परित्यति ॥28॥ विशेषार्थ :- जो पृथिवीपति अपनी प्रकृति, सैन्यबलादि बिना ज्ञात किये वलिष्ठ के साथ युद्ध करता है, उसका यह कार्य मस्तक से पर्वत फोड़ने के समान असम्भव व घातक है ।24 ॥ कौशिक ने भी कहा है : आत्मशक्तिमजनानो युद्धं कुर्याद्वलीयसा । साद्ध सच करोत्येव शिरसा गिरिभेदनम् ॥ शत्रु पर विजय प्राप्त करने की इच्छा करने वाले नीतिज्ञ व कर्तव्यनिष्ठ भूप को सामनीति द्वारा यदि इष्ट प्रयोजन सिद्ध हो तो संग्राम नहीं करना चाहिए । क्योंकि यदि गुड सेवन करने मात्र से आरोग्यलाभ हो जाय तो कौन बुद्धिमान विषभक्षण करेगा । कहावत है "जो मरता हो मिठाई से तो क्यों फिर विष दिया जावे 11" अर्थात् कोई भी विष नहीं खायेगा 25-26 ॥ वल्लभदेव व हारीत ने कहा है : साम्नैव यत्र सिद्धिस्तत्र न दण्डो बुधैर्विनियोग्यः । पित्तं यदि शर्करया शाम्यति ततः किंतत्पटोलेन ।1॥ गुडास्वादनतः शक्तियंदिगात्रस्य जायते । आरोग्यलक्षणा नाम तद्भक्षयति को विषम् ॥1॥ अर्थ विशेष नहीं है। 555
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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