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________________ नीति वाक्यामृतम् फल का अनुभव कराता हुआ (अधर्मम्) पाप को (न) नहीं (अनुबध्नाति) बांधता है । 115 | (त्रिपुरुषमूर्तित्वात् ) तीन देवोमय होने से (भूभुजः) राजा (प्रत्यक्षम् ) साक्षात् अन्य (दैवम्) देवता (न) नहीं (अस्ति ) है ||16 ॥ ( प्रतिपन्नः ) प्राप्त (प्रथमाश्रमः) ब्रह्मचर्य ( परे ब्रह्मणि) ईश्वर में आसक्त (निष्णातमतिः) निपुण बुद्धि (उपासित गुरुकुल: ) गुरुकुल सेया ( सम्यग्विद्यायामधीती) सर्व विद्या पारगामी (कौमारवयालं कुर्वन्) कुमारावस्था शोभनीय (कुर्वन्) करता हुआ ( क्षत्रपुत्रः ) क्षत्रिय का पुत्र (ब्रह्मा) ब्रह्मा (भवति) होता है 1117 ॥ ( संजातः) प्राप्त किया (राज्य कुल लक्ष्मी दीक्षाभिषेकम् ) राजवंश लक्ष्मी दीक्षा अभिषेक को प्राप्त कर (स्वगुणैः ) अपने गुणों द्वारा (प्रजासु ) प्रजा में (अनुरागम् ) प्रेम ( जनयन्तम् ) उत्पन्न करते हुए (नारायणम्) नारायण (आहुः ) कहा है ||18 ॥ (प्रवृद्धः ) बढ़ी हुई (प्रतापतृतीयलोचनः) प्रतापनेत्र की ( अनलः) अग्नि (परमैश्वर्यम् ) उत्तम ऐश्वर्य (आतिष्ठामान:) प्राप्त (राष्ट्रकण्टकान्) राष्ट्र के शत्रुओं को (द्विषद्) द्वेषी (दानवान्) दानवों को (छेतुं) नाश के लिए ( यतते ) प्रयत्न करता है (विजिगीषु) जयेच्छु ( भूपतिः) राजा (पिनाकपाणि: ) महेश (भवति) होता है ।। 9 ॥ विशेषार्थ :- आगमोक्त विधिवत् धर्मानुष्ठान करने वाले पुरुष उसके फल का अनुभव करता हुआ अधर्म को नहीं बांधता अर्थात् पापास्रव नहीं करता है । अभिप्राय यह है कि अहिंसादि धर्म का अनुष्ठान - पालन करने वाले के पाप बन्ध नहीं होता । क्योंकि धर्म और अधर्म सर्वथा विरोधी हैं । धर्म रूपी सूर्योदय होते ही अधर्म रूपी अन्धकार तत्क्षण विलीन हो जाता है । अतः प्राणी को सांसारिक व्याधियों के नष्ट करने को धर्मानुष्ठान करना चाहिए ||15 || श्री भगवजिनसेनाचार्य ने लिखा है : धर्मः प्राणिदयासत्यं क्षान्तिः शौचं वितृप्तता । ज्ञानवैराग्य सम्पत्तिरधर्मस्तद्विपर्ययः ||1 0 धर्मै कपरतां धत्ते बुद्धोऽनर्थ जिहासया अर्थ :- अहिंसा, सत्य, क्षमा, शौच, तृष्णा का त्याग सम्यग्ज्ञान व वैराग्य सम्पत्ति को धर्म और इनसे विपरीत हिंसा, असत्यादि को अधर्म बताते हुए बुद्धिमानों को अनर्थ परिहार (संकट निवारण) की इच्छा से धर्मानुष्ठान करने का उपदेश दिया है ।। ॥ 11 आदि पुराण प. 10 पृथ्वी का पालक राजा तीन देव ब्रह्मा, विष्णु, महेश स्वरूप होता है । इसके अतिरिक्त अन्य कोई प्रत्यक्ष देवता नहीं हैं 1116 ॥ मनु ने भी कहा है : - सर्वदेवमयो राजा सर्वेभ्योऽप्यधिकोऽथवा । शुभाशुभफलं सोऽत्र देयाद्देवो भवान्तरे ॥ ॥ अर्थ :- दैव तो शुभाशुभ कर्मों का फल परभव में देते हैं परन्तु राजा तां प्रत्यक्ष में ही शिष्टों का पालन और दुष्टों का निग्रह कर प्रत्यक्ष फल प्रदान करता है । इसीलिए राजा को सर्व देवमय कहा है ।।1 ॥ जिस कुमार ने अपनी प्रथमावस्था ब्रह्मचर्याश्रम में व्यतीत की, जिसकी तीक्ष्ण बुद्धि, कुशाग्र प्रतिभा परब्रह्म 530
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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