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नीति वाक्यामृतम्
प्रकार हमें अपना जीवन प्रिय है उसी प्रकार समस्त जीवों को भी अपना-अपना जीवन प्रिय होता है । अतः जीव हिंसा का सर्वथा त्याग करना श्रेयस्कर है ।। 5 ।।
बुद्धिमान पुरुष शराबी और मांसभक्षी मानवों के साथ, या उनके घरों में भोजन न करें । सह भोजन-पान का विचार भी नहीं करना चाहिए ।।6। जो मांसाहारी, शराबियों के साथ उनके गृहों में भोजन-पान करते हैं वे लोक में निन्दा के पात्र होते हैं और परलोक में भी कटुफल भोगते हैं ।।7।। व्रती पुरुषों को मशक-चरश व अन्य चमड़े के पात्रों में निक्षिप्त पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए । चमड़े की कुप्पियों में रखे घी, तेल, हींगादि का उपयोग कदाऽपि नहीं करना चाहिए । आजकल चमडे की वस्तुएँ अधिक नहीं है परन्तु प्लास्टिक की कुप्पी आदि का प्रयोग किया जाता है यह भी अशुद्ध है क्योंकि प्लाष्टिक को जलाने पर चर्म जैसी गंध आती है और उनमें निक्षिप्त (रखे) घी आदि पदार्थों में भी वैसी ही दुर्गन्ध आने लगती है । अनेकों रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं । अत: त्याज्य है । अव्रती कन्याओं के साथ विवाह आदि भी नहीं करना चाहिए ।। 8॥
आत्मकल्याण चाहने वालों को बौद्ध, सांख्य और चार्वाक आदि दार्शनिकों के कुतर्कों पर विश्वास नहीं करना चाहिए । सदैव के लिए मांसभक्षण का त्याग करना ही चाहिए । एक क्षुद्रमच्छ जो स्वयम्भूरमण समुद्र में महामत्स्य के कान में बैठा, मांसभक्षण रूप हिंसानन्दी रौद्रध्यान के कारण घोर भीषण दुःखाकीर्ण नरक विल में जा पड़ा।।१।। सत्पुरुषों को हिंसा कर्म से सदैव-निरन्तर दूर रहना चाहिए।
इसी प्रकार मधु और 5 उदम्बरों का भी त्याग करना चाहिए -
मधु मधुमक्खियों का वमन है । दूसरे शब्दों में मधुमक्खियों के अण्डे और नन्हें बच्चों के कलेवर का निचोड़ है । गर्भाशय में स्थित शुक्र और श्रोणित के सम्मिश्रण के तुल्य है भला सत्पुरुष इस प्रकार के णित और हिंसक पदार्थ को किस प्रकार सेवन कर सकते हैं । उन भिन-भिनाती मक्खियों और उनके मासूम निरपराध बच्चों का मल-मूत्र, रक्तादि युक्त मधु हिंसक वहेलिया, वनेचर आदि का भोज्य क्या सज्जनों द्वारा सेव्य हो सकता है ? कदाऽपि नहीं हो सकता। यदि वे सेवन करें तो यह आश्चर्यकारी ही होगा ।। 2||
पञ्च उदम्बर-बड़, पीपल, गूलर, पाकर और ऊमर के फलों में प्रत्यक्ष उडते हुए उस जीव दृष्टिगत होते हैं। उनका भक्षण करने से वे सब मरण को प्राप्त होते हैं । अनेकों सूक्ष्म जीव आगम प्रमाण से सिद्ध हैं । एक बूंद मधु सेवन से सात ग्राम जलाकर भस्म करने के जितना पाप कहा है ।।3। इस प्रकार श्रावकों को अपने आठ मूलगुणों को निर्दोष पालन करने का प्रयत्ल करना चाहिए । श्रावकों के उत्तर गुण
5 अणुव्रत, 3 गुणव्रत और चार शिक्षावत ये 12 उत्तरगुण हैं। 1. अहिंसाणुव्रत, 2 सत्याणुव्रत, 3 अचौर्याणुव्रत, 4 ब्रह्मचर्याणुव्रत और 5 अपरिग्रहाणु व्रत । ये पाँच अणुव्रत हैं । इनका स्वरूप निम्न है
काम, क्रोध, लोभादिवश प्राणियों के प्राणों का घात न करना, उन्हें मानसिक पीड़ा नहीं पहुँचाना, अहिंसाणुव्रत है । अर्थात् संकल्प पूर्वक किसी भी प्राणी का मन, वचन, काय से घात न करना अहिंसाणुव्रत कहलाता है ।
देवताओं की पूजा, अतिथिसत्कार, पितृकर्म, उच्चाटन, मारणादि कर्मों के लिए, औषधादि के निमित्त से भी प्राणियों का घात नहीं करना अहिंसाणुव्रत है । इस व्रत का धारी, आसन शैया मार्ग अन्न आदि का उपयोग भी देखभाल कर जीव रक्षा सहित ही करता है ।