________________
नीति वाक्यामृतम्
जिस प्रकार राजा से प्राप्त सम्मान-प्रशंसा सैनिकों को युद्धार्थ प्रेरणा प्रदान करती है, उत्साहित करती है उस प्रकार दान में दिया धन नहीं करता । अर्थात् सैनिक सुभटों को धन की अपेक्षा सम्मान देना उत्तम है । श्रेयस्कर है ।।16 ॥ नारायण विद्वान ने भी सेना को अनुकूल रखने का यही उपाय कहा है :
न तथा पुरुषानर्थः प्रभूतोऽपि महाहयम् । कारापयति योद्धृणां स्वामि संभावना यथा ।।1॥
सेना विरुद्ध के कारण :
___ स्वयमनवेक्षणं देयांशहरणं कालयापना व्यसनाप्रतीकारो विशेषविधाव संभावनं च तंत्रस्य विरक्ति कारणानि 17॥ स्वयमवेक्षणीयसैन्यं परैरवेक्षयन्नर्थतंत्राभ्यां परिहीयते ।।18 ।। आश्रितभरणे स्वामिसे वायां धर्मानुष्ठाने पुत्रोत्यादने च खलु न सन्ति प्रतिहस्ताः 19॥
अन्वयार्थ :- (स्वयम्) अपने आप (अनवेक्षणम्) निरीक्षण न करना (देयम्) दान (अंशम् )भाग को (हरणम्) हडपना (कालयापना) वेतन समय पर न देना (व्यसने) विपत्ति में (अप्रतिकारः) सहाय न करना (च) और (विशेषविधी) विशेष विधानों में (असंभावनम्) सहाय न करना (तंत्रस्य) सेना के (विरक्ति) विमुखता के (कारणानि) कारण [सन्ति] हैं ।।17॥ (स्वयम्) अपने (अवेक्षनीयम्) निरीक्षण योग्य (सैन्यम्) सेना को (परैः) दूसरों द्वारा (अवेक्षयन्) देखभाल कराने से (अर्थ-तंत्राभ्याम्) धन और सेना (परिहीयते) क्षीण होते हैं-कम होते हैं ।18 ॥ (आश्रितभरणे) सेवकों के भरण-पोषण में (स्वामिसेवायाम्) राज सेवा में (धर्मानुष्ठाने) धार्मिक क्रिया में (च)
और (पुत्रोत्पादने) पुत्रोत्पत्ति में (खलु) निश्चय से (प्रतिहस्ताः) दूसरों के हाथ-आक्षेप (न) नहीं (सन्ति) होते हैं 1191
विशेषार्थ :- सेना राजा के निम्न कार्यों से विरुद्ध हो जाती है - 1. स्वयं अपनी सेना की देख-रेख नहीं करना, 2. योग्य वेतन में कटौती करना - कम देना, 3. वेतन यथा समय नहीं देना, विलम्ब से पारिश्रमिक देना, 4. विशेष अवसरों पर यथा पुत्रोत्पत्ति, त्यौहार, विवाहादि के साय उन्हें आर्थिक सहयोग नहीं देना । अत: राजा को चाहिए कि इन बातों का ध्यान रखते हुए सैन्य बल को अनुकूल बनाये ।।17॥ भारद्वाज ने भी कहा है :इसी ग्रन्थ के नीतिवाक्यामृत मू.पृ.213 श्लो. 1 से 3 तक ।
जो नपति अपनी सेना की स्वयं देख-भाल न कर दूसरों से सुरक्षा कराता है 1 स्वयं प्रमादी रहता है वह नियम से धन और सेना दोनों से हाथ धो बैठता है । अर्थात् धन व सेनारहित हो जाता है । जैमिनि ने भी कहा है 118
स्वयं नालोक येतंत्र प्रमादाधो महीपतिः । तदन्यैः प्रेक्षितं धूर्तं विनश्यति न संशयः ।।1॥
सदाचारी, नीतिकुशल पुरुषों को सेवकों का भरण-पोषण, स्वामी की सेवा, धार्मिक कार्यों का अनुष्ठान और पुत्रोत्पत्ति इन चारों कार्यों को अन्य से न कराकर स्वयं ही करना चाहिए । यही लोकाचार व धर्माचार है ।।19॥ शुक्र ने भी कहा है -
419