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________________ नीति वाक्यामृतम्। विशेषार्थ :- जो राजा ऐशो-आराम से विलासी जीवन विताता है । एक-एक कौड़ी भी खजाने की वृद्धि में नहीं लगाता वह भविष्य में किसकार अपना समयमा माया र सकता है ? अर्थात नहीं कर सकता 14॥ गुरु विद्वान ने भी कहा है : काकिण्यपि न वृद्धिं यः कोशं नयति भूमिपः । आपत्काले तु सम्प्राप्ते शत्रुभिः पद्भियते हि सः 111॥ वही अर्थ है I निश्चय से खजाना ही पृथिवीपतियों का जीवन है क्योंकि प्राणों की रक्षा कोष पर आधारित रहती है । रसद नहीं तो सेनादि कहाँ और उनके बिना जीवन की रक्षा ही कैसे हो ? अत: कोष ही जीवन वास्तविक है ।15 || भागुरि विद्वान ने इस विषय में लिखा है : कोशहीनं नृपं भृत्या कुलीनमपि चोन्नतम् । संत्यज्यान्यत्र गच्छन्ति शुष्कं वृक्षमिवाण्डजाः ॥ अर्थ :- जिस प्रकार वृहद् और उन्नत वृक्ष भी शुष्क-पत्र-फल विहीन होने पर पक्षीगण त्याग कर उड जाते हैं । अन्यत्र हरे-भरे वृक्षों का आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार कुलीन और उन्नातशील राजा को भी कोशहीनधनहीन देखकर राजकर्मचारी, अमात्य, सेवक आदि त्यागकर अन्यत्र धनाढ्य राजा की शरण में चले जाते हैं। धन की सेवा संसार करता है || कोषविहीन राजा अन्याय में प्रवृत्त हो जाता है । निर्दोष प्रजा पर दोषारोपण करता है । उन्हें व्यर्थ दण्डित कर टैक्स लेता है, अनौचित्य रूप से व्यापारादि वर्ग से प्रचुर मात्रा में धनार्जन करने की चेष्टा में लगा रहता है। फलतः अन्याय पीड़ित प्रजा पलायन कर जाती है-भाग जाती है - क्योंकि "राजा हो चोरी करे न्याय कौन घर जाय" ? अतएव राष्ट्र शून्य हो जाता है कहा भी है "बाद ही खेत को खा जाय तो अन्न कहाँ से आये ?" अतएव राजा को न्यायोचित उपायों से कोषवृद्धि करते रहना चाहिए । ॥ गौतम विद्वान ने भी यही कहा है : कोशहीनो नृपो लोकान् निर्दोषानपि पीडयेत् । तेऽन्यदेशं ततो यान्ति ततः कोशं प्रकारयेत् ॥1॥ उपर्युक्त कथन को ही पुष्टि है। नीतिज्ञ पुरुष राजकोष को ही राजा स्वीकार करते हैं, राजा के शरीर को नहीं । कारण कि कोश शून्य होने से वह शत्रुओं के द्वारा पीड़ित किया जाता है मरण भी वरण कर लेता है 17 ॥ रैम्य विद्वान ने भी कहा है : राजा शब्दोऽप्रकोशस्य न शरीरे नपस्य च । कोशहीनो नृपो यस्माच्छत्रुभिः परिपीड्यते ।1॥ अर्थ उपर्युक ही है। 409
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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