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________________ नीति वाक्यामृतम् शत्रु पर विजय पाने के इच्छुक पृथिवीपति को जिसके पास राजमुद्रा नहीं दी गई है अर्थात् जो अज्ञात व अपरिचित पुरुष है - जिसके गन्तव्य, स्थान, उद्देश्य आदि के विषय में जांच पड़ताल नहीं की गई है ऐसे पुरुष को अपने दुर्ग में प्रवेश की आज्ञा नहीं देनी चाहिए तथा दुर्ग में हो तो बाहर भी नहीं जाने देना चाहिए ।। क्योंकि वह शत्रु पक्ष का भी हो सकता है और भेदक होने से विजय में बाधक हो सकता है ॥ शुक्र विद्वान ने भी कहा है : प्रविशन्ति नरा यत्र दुर्गे मुद्राविवर्जिताः । अशुद्धाः निः सरन्ति स्म तदुर्ग तस्य नश्यति ।।1॥ अर्थात् जिसके शासनकाल में दुर्ग में राजमुद्रा-विहीन व अपरिचित पुरुष प्रविष्ट हो जाते हैं अथवा वहां से बहिर निकल आते हैं उसका दुर्ग नष्ट हो जाता है ।। इतिहास में लिखा है कि हूण देश के नरेश ने अपने सैनिकों को विक्रय योग्य वस्तुओं को लेकर व्यापारियों के वेश में आये लोगों को चित्रकूट देश के दुर्ग में प्रवेश करा दिया । उनके द्वारा दुर्ग के स्वामी की हत्या करा दी गई । तथा चित्रकूट देश पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया ।। यह कूटनीति है जिसके शासकों को सावधान रहना अत्यावश्यक है 80 इतिहास में एक उल्लेख प्राप्त होता है, कि किसी शत्रु राजा ने कुछ सैनिकों को भेजा । हम कांची नरेश की सेवार्थ आये हैं इस प्रकार उन्होंने विज्ञप्ति दी 1 वे खुंखार शिकारी थे । शिकार का पूर्ण अभ्यास था उनको। आसानी से दुर्ग में प्रविष्ट हो उन्होंने सरलता से वहाँ के राजा भद्र को मार डाला और अपने स्वामी को कांची देश का अधिपति-शासक बना दिया ।9।। जैमिनि विद्वान ने भी कहा है : स्वदश जेषु भृत्येषु विश्वासं यो नृपो व्रजेत् । स द्रुतं नाशमायाति जैमिनिस्त्विदमबबीत् ॥ अर्थ :- जो राजा अपने देश में प्रविष्ट हुए अपरिचित व अपरिक्षित पुरुषों का विश्वास करता है, वह अवश्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।1 अभिप्राय यह है कि राजा को निरन्तर विश्वस्त चिर-परिचित लोगों को ही अपने राज्य में निवासादि देना चाहिए 19॥ “॥ इति दुर्ग समुद्देश ॥" इति श्री परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर समाधि सम्राट् आचार्य श्री 108 महातपस्वी, वीतरागी, दिगम्बर जैनाचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर महाराज के पट्टाधीश परम् पूज्य तीर्थभक्त शिरोमणि आचार्य परमेष्ठी श्री 108 महावीरकीर्ति जी महाराज के संघस्था, श्री परम् पूज्य सन्मार्ग दिवाकर, वात्सल्य रत्नाकर श्री 108 आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज की शिष्या 105 ज्ञानचिन्तामणि प्रथम गणिनी आर्यिका विजयामती ने यह हिन्दी विजयोदय टीका समुद्देश, परम् पूज्य अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश, तपस्वी सम्राट् सिद्धान्त चक्रवर्ती, वात्सल्यरत्नाकर श्री 108 आचार्य सन्मतिसागर जी महाराज के चरणारविन्दद्वय के सान्निध्य में समाप्त किया 120 || ॐ शान्ति ॐ ॥०॥ 406
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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