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________________ नीति वाक्यामृतम् अन्वयार्थ :- (वैषम्य) पर्वतादि से युक्त (पर्याप्तः) सम्यक प्रकार (अवकाश:) आवश्यक वस्तुएँ जह (अवकाश:) सुलभस्थान हो, (यव) जौ आदि अन्न एवं (सेन्धन) नमकादि (उदकम्) जल (च) और (भूयः) कर (त्वम्) आप-तुम (स्वस्य) स्वयं का (परेषाम) दूसरों के (अभाव:) अभाव (बहु धान्य रस संग्रहः) अधिक धान्य (अन्न) रसादि के संग्रह का (प्रवेशः) आयात (अपशारः) निर्यात् हो (वीरः) सुभट (पुरुषा) बलवान वीर योद्धा (इति) इस प्रकार से (दर्ग सप्पत) किले की विभूति हैं (अन्यत्) यदि ये साधन नहीं तो (वन्दिशालावत्) जेलखाने के समान हैं । ॥ (अदुर्ग:) किलेरहित (देश:) देश (कस्य) किसका (नाम न) नहीं (पराभव) तिरस्कार का (आस्पदम्) स्थान है IA || (अदुर्गस्य) दुर्गविहीन (राज्ञः) राजा का (पयोधि) समुद्र के (मध्ये) बीच में (पोतच्युतपक्षिः) जहाज से च्युत पक्षी (इव) समान (आपदि) विपत्ति में (आश्य:) सहारा (न अस्ति) नहीं है । विशेषार्थ :- दुर्ग के साथ निम्न बातों का होना दुर्ग की सम्पत्ति मानी जाती हैं - जिससे विजिगीषु शत्रुकृत उपद्रवों से अपना राष्ट्र सुरक्षित कर विजयश्री प्राप्त कर सकता है ।। सर्वप्रथम - 1. दुर्ग की भूमि पर्वतादि के कारण विषम - ऊंची-नीची व विस्तीर्ण हो । 2. जहाँ पर अपने स्वामी के लिए ही घास, ईंधन और जल बहुतायत से प्राप्त हो सके, परन्तु आक्रमण करने वाले शत्रुओं के लिए नहीं । 3. जहाँ पर गेहूँ, जौ, चावल आदि अन्न व नमक, तैल व घी वगैरह रसों का प्रचुर मात्रा में संग्रह हो । 4. जिसके पहले दरवाजे से प्रचुर धान्य और रसों का प्रवेश (आयात) और दूसरे द्वार से निर्गम (निर्यात) होता हो । 5. जहाँ पर बहादुर सैनिकों का पहरा हो । जिस दुर्ग के द्वारा इन कार्यों की सफलता हो वही दुर्ग की सम्पत्ति व वैभव है अन्य नहीं । यदि ये कार्य न हों तो वह दुर्ग नहीं, अपितु जेल खाना है । अपने स्वामी का घात स्थान है ऐसा समझना चाहिए । ॥ शक्र विद्वान ने भी कहा न निर्गमः प्रवेशश्च यत्र दुर्गे प्रविद्यते । अन्य द्वारेण वस्तूनां न दुर्गं तद्धि गुप्तिदम् 1॥ अर्थात् जिसमें एक द्वार से वस्तु प्रवेश और अन्य द्वार से वस्तुओं का निर्गम नहीं होता वह दुर्ग रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकता । वह दुर्ग न होकर मात्र बन्दिखाना-जेलखाना है ।। दुर्ग विहीन राज्य किसी पराजय का हेतू नहीं होता ? सभी के पराभव-नाश का कारण होता ही है । दुर्ग विरहित राजा का कोई अन्य रक्षा करने वाला नहीं । वह निराश्रय होकर नष्ट हो जाता है । जिस प्रकार विशाल सागर के मध्य से जाते हुए जहाज से कोई पक्षी उड़ जाय तो उसे मरण तुल्य आपत्तियों से बचाने वाला कोई सुरक्षित स्थान प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार दुर्गरहित राजा कितना ही वलिष्ठ सुभट, बुद्धिमान व नीतिज्ञ क्यों न हो शत्रु आक्रमण से होने वाली क्षति से उसे कोई नहीं बचा सकता । शत्रु द्वारा कृत उपद्रवों, संकटों में उसे फंसना ही पड़ता है ।।5 ॥ शुक्र विद्वान ने भी कहा है : दुर्गेण रहितो राजा पोतभ्रष्टो यथा खगः । समुद्रमध्ये स्थानं न लभते तद्वदेव सः ।।1॥ ___अर्थात् दुर्ग शून्य राजा अवश्य ही शत्रु द्वारा परास्त किया जाता है । अतः राजा का कर्तव्य है राज्य, राष्ट्र । और स्वयं की रक्षार्थ सुदृढ़ दुर्ग अवश्य निर्मित कराये ।। ।। | 404
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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