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नीति वाक्यामृतम् अपि सङ्ग्रामकालेऽपि वर्तमाने सुदारुणे । सर्पन्ति संमुखा दूता वधं तेषां कारयेत् 11॥
अर्थ :- महा भयङ्कर संग्राम प्रारम्भ होने पर भी दूत राजाओं के समक्ष सन्धि आदि कराने के निमित्त विचरते ___ रहते हैं । अतएव राजा का उनका वध नहीं करना चाहिए । दूत राजा का दांया हाथ होता है 1119॥ और भी कहते
(तेषांमन्तेवा) तेषामन्तावसायिनोऽप्यवध्याः ॥20॥ अन्वयार्थ :- (तेषाम्) उन दूतों में (अन्तौ असयिनः) चाण्डाल (अपि) भी (अवध्याः) मारने योग्य नहीं
विशेष :- दूतों में यदि कोई चाण्डालजाति का है तो भी वह मृत्युदण्ड का पात्र नहीं फिर ब्रह्माणादि उच्चकुलीनों की तो बात ही क्या है ? वे तो अवध्य हैं ही ।।
किं पुन ब्राह्मणः ॥21॥ ब्राह्मणादि यदि दूत पदासीन हैं तो वे तो अवध्य हैं ही । शुक्र विद्वान ने भी कहा है :__अन्तावसायिनो येऽपि दूतानां प्रभवन्ति च ।
अवध्यास्तेऽपि भूतानां स्वकार्य परिसिद्धये ।।1॥ अर्थ :- राजदूतों में यदि कोई चाण्डाल भी हों तो भी राजा को अपने कार्य की सिद्धि के लिए उसका वध कभी नहीं करना चाहिए 111 ।।
___ अबध्यभावो दूतः सर्वमेव जल्पति ।।22॥ अन्वयार्थ :- (अबध्यभाव:) नहीं मारने योग्य (दूतः) राजदूत (सर्वमेव) सत्य-असत्य, कटु-मधुर आदि सर्व ही वार्ता (जल्पति) बोलता है ।।
विशेष :- दूत राजा द्वारा मारने योग्य नहीं होता । वह निर्भयता से सत्य-असत्य कटु-मधुर, प्रिय-अप्रिय, वचन राजा के समक्ष बोलता है तो भी राजा को धैर्य पूर्वक सर्व सहन करना चाहिए 122 ।। दृष्टान्त :
कःसुधीर्दूतवचनात् परोत्कर्ष स्वापकर्ष च मन्येत ।।23।। __ अन्वयार्थ :- (क:) कौन (सुधीः) बुद्धिमान (दूतवचनात्) दूत के वचन से (परोत्कषम्) पर का विकास (च) और (स्वाप कर्षम्) अपना अपकर्ष (मन्येत) मानता है ?
विशेषार्थ :- राजदूत के वचन सुनकर कौन बुद्धिमान राजा अपने शत्रु का उत्कर्ष और अपना अपकर्ष मानेगा? कोई नहीं मानेगा । क्योंकि दूत के वचन शत्रु की उन्नति और अपनी अवनति करने वाले नहीं ।। अतः वशिष्ठ विद्वान ने भी कहा है :
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