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नीति वाक्यामृतम्
__ अर्थ :- जिस प्रकार अन्धा पुरुष कुपित होने पर जो कोई भी सामने आता है उसे ही मार देता है । उसी प्रकार क्रोधी पुरुष भी बिना विचारे चाहे जिसे जो सामने आया उसे ही मार डालता है ।। अतः क्रोधी के सामने नहीं जाना चाहिए |1171॥ कहा है :
कुद्धो हि सर्प इव यमेवाग्रे पश्यति तत्रैव रोष विषमुत्सृजति 172॥ अन्वयार्थ :- (हि) निश्चय से (क्रुद्धो) रुष्ट (सर्प) अहि (इव) समान (यमेव) जिसको भी (अग्रे) सामने (पश्यति) देखता है (तत्रैव) उसी समय (रोषविषम्) कोप विष को (उत्सृजति) उगलता है ।
विशेष :- कोपाविष्टपुरुष जिसको भी समक्ष पाता है उसी पर विषधर सर्प के समान झपटता है और कोप विष उगलता है । अभिप्राय यह है कि सर्प जिस प्रकार दोषी-निर्दोषी जो भी सामने आया उसे ही डस डालता है उसी प्रकार कृद्ध पुरुष की दशा है । तथाहि :
अप्रतिविधातुरागमनाद्वरमनागमनम् 1073॥ अन्वयार्थ :- (अप्रतिविधिः) प्रयोजन सिद्ध न करने वाला (आतुराः) व्यथित पुरुष (आगामनात्) आने से (वरम्) श्रेष्ठ (अनागमन) नहीं आना है ।
विशेषार्थ :- प्रयोजन सिद्ध करने में असमर्थ व्यक्ति के समक्ष जाने की अपेक्षा नहीं जाना ही उत्तम है । क्योंकि कार्य सिद्ध न हो तो व्यर्थ समय खोने से क्या प्रयोजन ? कुछ भी नहीं । भारद्वाज विद्वान ने भी कहा
प्रयोजनार्थमानीतो यः कार्यंतन्न साधयेत् ।
आनीतेनापि किं तेन व्यर्थो पक्षयकारिणा ।।1।। अर्थ :- प्रयोजन सिद्धि के लिए बुलाया गया मनुष्य वैद्यादि यदि रोगादि कार्य का शमन नहीं करता तो उसके बुलाने से क्या प्रयोजन ? रोगी विलख रहा हो और वैध यों ही आकर जावे, रोगशामित न हो तो उसके बुलाने से क्या प्रयोजन ? कुछ भी नहीं । अपितु आने-जाने में व्यर्थ समय ही बरबाद होता है । क्योंकि निरर्थक व्यक्ति केवल प्रयोजनार्थी के समय को व्यर्थ नष्ट करता है 11173 ॥ इत्यलम् ।। इति मन्त्रिसमुद्देशः ।।
। इति श्री परम् पूज्य प्रातः स्मरणीय, विश्व बंध, चारित्रचक्रवर्ती मुनि कुञ्जर समाधि सम्राट् महान् तपस्वी, वीतरागी सन्त शिरोमणि दिगम्बर जैनाचार्य श्री 108 आदिसागर जी महाराज 'अंकलीकर' के पट्टाधीश परम् पूज्य तीर्थ भक्त शिरोमणि श्री 108 आचार्य महावीर कीर्ति जी महाराज के संघस्था, आचार्य श्री वात्सल्य रत्नाकर, रत्नत्रय मण्डित श्री 108 विमल सागर जी महाराज की शिष्या ज्ञान चिन्तामणि सिद्धान्त विशारदा प्रथम गणिनी आर्यिका 105 श्री विजयामती माता जी द्वारा परम पूज्य तपस्वी सम्राट् सिद्धान्त चक्रवर्ती 108 आचार्य श्री सन्मति सागर जी महाराज के पदपद्य सान्निध्य में विजयोदय हिन्दी टीका में मन्त्रिसमुद्देश नामका 10वां समुद्देश समाप्त हुआ ।।
"।। शुभं भूयात् ।।"
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