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नीति वाक्यामृतम्
समृद्धिकाले सम्प्राप्ते परोऽपि स्वजनायते । अकुलीनोऽपि चामात्यो दुर्लभः स महीभृताम् 1॥
वल्ल भ देव.
अर्थ :- धनादि वैभव के प्राप्त होने पर दूसरे-पराये भी पारिवारिक जनों के समान व्यवहार करते हैं । अतः राजाओं को विपत्ति में सहाय करने वाले सचिव का मिलना अति दुर्लभ है । चाहे वह नीच कुल का भी क्यों न हो ।। आचार्य कहते हैं कि मन्त्री को दृढ़चित्त होना चाहिए -
बिना विचारे बुद्धि से, मनसूबे निस्सार डग-मग चञ्चल चित्त का, कर न सके व्यवहार 110॥
कुरल.पृ.236
अर्थ :- चञ्चलचित्त का पुरुष सोचकर ठीकरीति निकाल भी ले परन्तु उसे व्यावहारिक रूप देते हुए वह डग-मगा जायेगा और अपने अभिप्राय को कभी पूर्ण न कर सकेगा। व्यवहार अज्ञ मन्त्री का दोष :
किं तस्य भक्तया यो न वेत्ति स्वामिनो हितोपायमहितप्रतीकारं वा ।112॥
अन्वयार्थ :- (योन्यः) जो मन्त्री (स्वामिनो-स्वामिनः) स्वामी का (हितोपायम्) हित का उपाय (वा) अथवा (अहित प्रतीकारम्) अहित का प्रतीकार (न) नहीं (वेत्ति) जानता है (तस्य) उसकी (भक्तया) भक्ति से (किं) क्या प्रयोजन ? कुछ भी नहीं ।
जो सचिव अपनी स्वामी-राजा की-कोषवृद्धि आदि उन्नति, और शत्रु आदि जन्य दुःखों की निवृत्ति करना नहीं जानता उसकी कोरी भक्ति से क्या लाभ ? कोई लाभ नहीं ।
विशेषार्थ :- जो व्यक्ति सन्धि-विग्रहादि द्वारा राजा का हित साधन के विषय में अनभिज्ञ हो, अहित के परिहार करने में असमर्थ हो, परन्तु भक्ति विशेष करता हो, उसे राजमन्त्री बनाने से क्या लाभ ? अतएव राजा को राजनीति विद्या में निपुण, एवं कर्तव्यनिष्ठ पुरुष को मन्त्री पद पर नियुक्त करना चाहिए । गुरु विद्वान ने भी लिखा
किं तस्य व्यवहाराषैर्विज्ञातै: शुभकैरपि ।
यो न चिन्तयते राज्ञो धनोपायं रिपुक्षयम् ।।1॥ अर्थ :- जो व्यक्ति राजा की धनसम्पत्ति प्राप्ति के उपाय और उसके शत्रुनाश पर ध्यान नहीं देता, उसके । कोरे शिष्टाचार और भक्ति प्रदर्शन से क्या लाभ है ? अर्थात् कोई लाभ नहीं है । शस्त्रविधानिपुण होकर भी भीरुमन्त्री का दोष :
किं तेन सहायेनास्त्रज्ञेन मंत्रिणा यस्यात्मरक्षणेऽप्यस्त्रं न प्रभवति ।।13॥
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