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________________ Hinmammugar लोक में निन्दा व अविश्वास का पात्र होगा, तथा परलोक में दुर्गति का पात्र होगा । दण्डनीति के सहारे से उसे प्रजा के धर्म, व्यवहार व चारित्र की रक्षा करना चाहिए । कोरे आतंक से रक्षा नहीं हो सकती । यद्यपि न्यायालय (कोर्ट) में न्यायाधीश (जज) समक्ष केश में वादी और प्रतिवादी दोनों ही अपने-अपने पक्ष को सत्य घोषित करते हैं । तथा वकीलों (एडवोकेटों)द्वारा अपने-अपने पक्ष का समर्थन कराकर सत्य सिद्ध कराते हैं । परन्तु उन दोनों में सत्य तो एक ही होता है । इस स्थिति में सत्य के निर्णायक हेतु निम्न प्रकार हो सकते हैं : 1. दृष्टदोष :- जिसके अपराध देखने में आये हों । 2. स्वयंबाद :- जो स्वयं अपनी गलती-दोष को स्वीकार कर ले । सरलतापूर्वक न्यायोचित जिरह-वाद-विवाद । 4. कारणों को समक्ष उपस्थित कर देना । 5. शपथ-कसम दिलाना । ये पाँचों हेतु यथावश्यक अर्थ-कार्य के साधक होते हैं । इनके द्वारा अपराधी के अपराध का समर्थन हल होना संभव है । यदि इन हेतुओं से निर्णय न हो सके तो यथार्थ सत्य का निर्णय करने के लिए साक्षियों और गुप्तचरोंखफिया-पलिस द्वारा वादी प्रतिवादी की यथार्थ गलतियों का निर्णय करना चाहिए । निश्चय किये बिना फैसला करना उचित नहीं । प्रबल युक्तियों द्वारा अपराधियों का अपराध का पूर्ण निर्णय करके यथादोष-यथापराध दण्डविधान करने से राष्ट्र की सुरक्षा होती है । अत: अपराधानुकूल दण्डविधान करना "दण्डनीति" कहलाती है ।2 ॥ दण्ड विधान का उद्देश्य : प्रजापालनाय राज्ञा दण्डः प्रणीयते न धनार्थम् ।।३॥ अन्वयार्थ :- (राज्ञा) राजा का (दण्ड:) दण्ड (प्रजापालनाय) प्रजापालन के लिए (प्रणीयते) प्रयुक्त होता है (न) न कि (धनार्थम्) धन के लिए । . राजा का उद्देश्य प्रजापालन है न कि उनसे धन लेकर सञ्चय करना । विशेषार्थ :- राजा दण्डनीति का प्रयोग प्रत्येक मनुष्यों को कर्तव्य निष्ठ और न्याय-नीतिज्ञ बनाने के लिए करता है । गरु विद्वान ने इस विषय में अपने विचार व्यक्त किये हैं : यो राजा धनलोभेन हीनाधिककरप्रियः । तस्य राष्ट्रं व्रजेन्नाशं न स्यात् परमवृद्धिमत् ॥1॥ अर्थ :- जो राजा धनलोलुपी होकर हीनाधिक जुर्माना-दण्ड देता है उसके राज्य की वृद्धि नहीं होती । परिणामतः उसका राज्य नष्ट हो जाता है । सारांश यह है कि प्रजाकण्टकों का राज कंटकों का अभाव करने के लिए राजा को यथार्थ अपराध के अनुसार यथोचित दण्ड देना चाहिए । धन की लोलुपता वश दण्ड विधान नहीं करना चाहिए । राज्य भी एक कला है । इस कला रक्षण को कलाधर ही कर सकता है । इसलिए राजा को दण्डनीति का यथार्थ ज्ञाता होना । -चाहिए 13 ॥ 216
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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