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________________ नीति वाक्यामृतम् (नियोगि) सेनापति आदि (ग्रामकूट :) पटवारी (वार्द्धषिका : ) वलावानपुरुष (हि) निश्चय से (राष्ट्रस्य) राष्ट्र के ( कण्टकाः ) कांटे हैं ।। शत्रु हैं । विशेषार्थ :- प्रजा का धन-माल लूटने वाले चोर होते हैं । अपराध करने पर राजा द्वारा जिन्हें देश से निकाल दिया जाता है वे 'चरट' कहलाते हैं । राजा के वे अधिकारी वर्ग जो जमीन खेतादि की माप-तौल करने वाले "मन्नप" कहलाते हैं । वंश की कीर्ति गान करने वालों को "धमन" कहते हैं । राजा के अतिनिकट रहने वाले चापलूस प्रियपात्र " राजवल्लभ" कहे जाते हैं । जंगलों की रक्षा करने के लिए नियुक्त किये गये राज्याधिकारी " आटविक" कहे जाते हैं। छोटे-छोटे ग्रामादि की रक्षार्थ नियुक्त अधिकार "तलार" कहलाते हैं। जुआरी लोक " अक्षशालिक " कहे जाते हैं । मन्त्रि, पुरोहित आमात्यादि "नियोगी" कहलाते हैं। पटवारी को "ग्राम कूट" कहते हैं । "वार्द्धषिका " वे कहलाते हैं जो अन्नादि के संग्रह की व्यवस्था करते हैं । ये 11 व्यक्ति राष्ट्र के कण्टक- कांटे शत्रु हैं । कंटकों के सदृश उपद्रव करने वाले होते हैं । क्योंकि ये साम, दाम, दण्ड और भेद का प्रयोग कराकर राष्ट्र में उपद्रव फैला सकते हैं । अतः राजा का कर्तव्य है कि इन पर कड़ी दृष्टि बनाये रखना चाहिए । प्रत्येक अपराधी को यथोचित तत्काल दण्डित करना चाहिए । राजा को इनकी अपराधियों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए ।। गुरु विद्वान ने भी कहा है : चौरादिकेभ्यो दृष्टेभ्यो यो न राष्ट्रं प्ररक्षति । तस्य तन्नाशमायाति यदि स्यात्पितृपैतृकम् ॥ अर्थ :- जो राजा चोरादि अपराधियों को प्रत्यक्ष देखकर भी उपेक्षा करता है उन्हें दण्डादि नहीं देता है, उनका निग्रह कर प्रजा की रक्षा की रक्षा नहीं कर सकते वे राजा स्व और पर राजा और राज्य का नाश हो जाता है । 211 किस राजा के राज्य में राष्ट्र कण्टक नहीं होते हैं : प्रतापवति राज्ञि निष्ठुरे सति न भवन्ति राष्ट्रकण्टकाः ।। 22 । अन्वयार्थ :- (राज्ञि) राज के ( प्रतापवति) प्रतापवान एवं (निष्ठुरे) न्याय करने में कठोर ( सति) होने पर (राष्ट्रकण्टकाः ) राजशत्रु (न) नहीं ( भवन्ति ) होते हैं ।। जिस देश में राजा प्रतापी, न्यायनिष्ठ, राजविद्या में निपुण होता है, अपराधियों को यथोचित्त कठोर दण्ड देता है उसके राज्य में शत्रुओं की उत्पत्ति नहीं होती । विशेषार्थं :- राजा की दृष्टि प्रजा की सुख समृद्धि के विषय में रहती है तो वह न्याय अन्याय का ध्यान रखता है । शिष्टों का पालन और दुष्टों का निग्रह अपने विद्या- कौशल से करता है। शासन काल में नैपुण्य प्राप्त उस राजा के राज्य में प्रजा को किसी भी वस्तु का अभाव नहीं होता, चोर तस्करादि नहीं होते । अतएव राज शत्रुओं के अभाव से राज्य में सर्वत्र सुख-शान्ति का साम्राज्य स्थापित रहता है । व्यास विद्वान ने कहा है : यथोक्त नीति निपुणो यत्र देशे भवेन्नुपः । स प्रतापो विशेषेण चौराद्यैर्न स पीड्यते ॥1॥ 210
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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