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________________ rmu- - - - - - -- नीति वाक्यामृतम् । N वणिकों की श्री वृद्धि का उपाय : निश्चलैः परिचितैश्च सह व्यवहारो वणिजां निधिः ।।40॥ अन्वयार्थ :- (वणिजाम्) वणिकों का (व्यवहारः) व्यवहार (निश्चलैः) स्थायी रहने वालों (परिचितैः) परिचितों (च) और (निधि:) धनवानों के (सह) साथ ही [भवति] होता है । वणिक उन्हीं के साथ लैन-देन व्यवहार करते है जो स्थायों रहने वाले एक ही स्थान में रहते हैं, जिनके पकान-दुकानादि सम्पत्ति होती है और परिचित हैं । जिनकी आय-व्यय से जानकारी रहती है । विश्वस्तों को ऋण देने से भविष्य में किसी प्रकार का खतरा नहीं रहता । रकम डूब जाने का अंदेशा--सन्देह नहीं रहता है । अपितु प्रचुर धन प्राप्त होता है। जमींदारों को ऋण देते समय पूर्वापर विचार कर ही देना चाहिए । नीच जाति के मनुष्यों को वशकरने का उपाय : दण्डभयोपधिभिर्वशीकरणं नीचजात्यानाम् 141 ॥ अन्वयार्थ :- (नीचजात्यानाम्) नीच जाति का (वशीकरणम्) वश करने का उपाय (दण्डभयोपधिभिः) दण्ड का भय प्रदर्शित है । विशेषार्थ :- नीच पुरुषों का वशीकरण मन्त्र "दण्ड का भय" है ||41 || गर्ग विद्वान ने भी कहा हैदण्ड भयोपधि वशीकरणं वणिजां निधिः ।। अथवा - विश्वस्तै: सह व्यवहारो वणिजां निधिः ।। अर्थ :- दण्डभय प्रदर्शित करना वणिजों की निधि है । नीच जाति बिना भय दिखाये वश में नहीं आती। दण्ड प्रयोग करना ही होता है । अत: नीचों को दण्डभय दिखाना ही चाहिए ।। विश्वस्त पुरुषों के साथ वणिकों का व्यवहार करना सम्पत्ति वृद्धि का उपाय है 141 || इति श्री त्रयी समुहेशः ।।7।। इति श्री प.पू.प्रातः स्मरणीय, विश्ववंद्य, चारित्र-चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर समाधि सम्राट् महातपस्वी, वीतरागी, दिगम्बर जैनाचार्य श्री आदिसागर जी महाराज (अंकलीकर) की परम्परा के पट्टाधीश प. पू. तीर्थ भक्त शिरोमणि समाधि सम्राट् एवं मेरे शिक्षागुरु आचार्य परमेष्ठी श्री महावीर कीर्ति जी महाराज की संघस्था एवं कलिकाल सर्वज्ञ वात्सल्यरत्नाकर श्री आचार्य विमल सागर जी की शिष्या 105 प्र, गणिनी आर्यिका ज्ञान-चिन्तामणि सिद्धान्त विशारदा विजयामती द्वारा विजयोदय हिन्दी टीका में यी समुद्देश प. पू. तपस्वी सम्राट् सिद्धान्त चक्रवर्ती अंकलीकराचार्य के तुतीय पट्टाधीश श्री 108 आचार्य परमेष्ठी सन्मति सागर जी महाराज के चरण सान्निध्य में समाप्त हुआ ।। 10॥ 197
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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