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नीति
अन्वयार्थ :- (निजागमोक्तम्) अपने-अपने आगम में कहे अनुसार ( अनुष्ठानम् ) विधि-विधान (यतीनाम् ) यतियों का (स्व) निज (धर्म) धर्म है ।
जो जिसका आचार सार है, उसमें जिसका जो कर्तव्य वर्णित है, उसका तदनुसार पालन करना तपस्वियों का धर्म है ।
चारायण विद्वान ने इस विषय में लिखा है कि :
स्वागमोक्तमनुष्ठानं यत् स धर्मो निजः स्मृतः । लिङ्गिनामेव सर्वेषां योऽन्यः सोऽधर्म लक्षणः ॥1॥
अर्थ :- अपने शास्त्र - आगम में कथित व्रत, नियम, अनुष्ठानादि का विधान जिस प्रकार वर्णित है, उसी प्रकार सम्पादन करना समस्त त्यागियों-तपस्वियों का कर्तव्य है ।
कर्त्तव्यच्युत होने पर साधु का कर्त्तव्य :
स्व धर्म व्यतिक्रमेण यतीनां स्वागमोक्तं प्रायश्चित्तम् ||16 ॥
अन्वयार्थ :- (स्व) अपने (धर्मात् ) कर्त्तव्य से ( व्यक्तिक्रमेण) च्युत होने पर ( यतीनाम् ) यतियों का (स्व आगमोक्तम्) अपने आगम के अनुसार ( प्रायश्चितम्) दण्ड लेना ।
यदि साधुजन अपने व्रतों से कदान् विचलित हो जावें तो उन्हें आगमोक्त विधि से प्रायश्चित ले लेना चाहिए ।।16 ||
अभीष्ट - देव की प्रतिष्ठा का निर्देश :
यो यस्त्र देवस्य भवेच्छ्रद्धावान् स तं देवं प्रतिष्ठापयेत् 1117 ॥
अन्वयार्थ :- (यः) जो व्यक्ति (यस्य) जिस ( देवस्य) देव की ( श्रद्धावान् ) श्रद्धावान ( भवेत्) हो (स) वह (तम् ) उसी (देवम्) देव को (प्रतिष्ठापयेत्) प्रतिष्ठित करे ।
उदार चेता सर्वोपकारी आचार्य कहते हैं कि जिसकी जिस देव में श्रद्धा हो वह उसी देव की स्थापना करे।
विशेषार्थ :- यहाँ आर्हद् मतानुसार यह कहना "जिसकी श्रद्धा जिसमें हो वह उसे देव मान" विरुद्ध पड़ता है। क्यों जिनमत में सर्वज्ञ, वीतरागी, हितोपदेशी को ही देव कहा है । जिन देव की भक्ति सम्यग्दर्शन कारण बतायी है । शेष मान्यता मिथ्यात्व की द्योतक है । यह सत्य है परन्तु आचार्य देव ने यहाँ यह राजनैतिक उदार दृष्टिकोण से कही है । राजा समस्त प्रजा का पालक पिता होता है। सबको प्रसन्न रखना उसका कर्त्तव्य है । वस्तुतः देव होने योग्य कौन है यह वे स्वयं आगे दिवासानुष्ठान समुद्देश के 66वें सूत्र में प्रदर्शित करेंगे कि पुरुष श्रेष्ठ को ईश्वर कहते हैं- जो जन्म, मरण, बृद्धत्व, क्षुधा तृषादि दोषों से रहित और चार घातिया - ज्ञानावरणी, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय से रहित हो- रागद्वेषादि परिणतियों से रहित हो, वही देव यथार्थ देव है संसार से तारने वाला है ।
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