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नीति वाक्यामृतम्
अथ आन्वीक्षिकी समुद्देशः
आध्यात्म्ययोग-आत्मध्यान का लक्षण निर्देश करते हैं:
आत्मनोमानल मनायो लक्षणो ह्यध्यात्मयोगः ॥1॥
अन्वयार्थ :- (आत्मा) जीव (मनः) चित्त (मरुत्) प्राणवायु-कुम्भक, पूरक, रेचक (तत्व) पृथ्वी, जल, अग्नि (समता) साम्यभाव (योग) मन-वचन, काय की स्थिरता (लक्षण:) स्वरूप वाला (हि) निश्चय से (अध्यात्म) आत्म स्वरूप (योगः) योग (भवति) होता है।
विशेषार्थ:- आत्मा-वहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा, चित्त, वायु-कुम्भक-प्राणायाम की शक्ति से शरीर के मध्य में प्रविष्ट की जाने वाली घटाकार वायु को 'कुम्भक' कहते हैं ।
पूरक :- उक्त विधि से ही घटाकर वायु सम्पूर्ण शरीर में फैली वायु ।
रेचक :- शरीर में सर्वत्र वायु को शरीर से बाहर निकालने की क्रिया को 'रेचक' कहते हैं । इनके साथ पृथिवी, जल, अग्नि और वायु आदि तत्त्वों की समानता और दृढ़ निश्चलता-स्थिरता को अध्यात्म्य योग-आत्मध्यान (धर्मध्यान) कहते हैं । ऋषिपत्रक विद्वान ने कहा है :
आत्मा मनो मरुत्तत्वं सर्वेषां समता यदा । तदा त्वध्यात्मयोगः स्यान्नराणां ज्ञानदः स्मृतः ॥1॥
अर्थ :- जिस काल आत्मा, मन, और प्राणवायु की समानता-स्थिरता होती है, उस समय मनुष्य को सम्यग्ज्ञान का जनक अध्यात्मयोग प्रकट होता है । व्यास भी इसी का समर्थन करते हैं :
न पद्मासनतो योगो न च नासाग्र वीक्षणात् ।
मनसश्चेन्द्रियाणां च संयोगो योग उच्यते ॥1॥ अर्थ :- पद्मासन लगाकर बैठ जाना योग नहीं है, नासाग्रदृष्टि स्थिर कर देखते रहना भी योग नहीं कहा की
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