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नीतिवाक्यामृतम्
ग्रहण नहीं करता है वह सात्विक प्रकृत्ति युक्त "जायावर" कहलाता है ।। 3 ॥
जो दक्षिणा, दान-पूर्वक अग्निष्टोम आदि यज्ञ करता है वह सौम्य प्रकृति युक्त और रूपवान " अघोर" कहा गया है 114 11 देखे नीतिवाक्यामृत संस्कृत टीका पृ. 49 (नोट :- जैन सिद्धान्त में उक्त गृहस्थों के भेद नहीं पाये जाते, परन्तु इस ग्रन्थ में आचार्य श्री ने जिस प्रकार कुछ स्थलों में अन्य नीतिकारों की मान्यताओं का संकलन किया है, उसी प्रकार यहां भी अन्यमतों की अपेक्षा गृहस्थों के भेद संकलन किये हैं। अथवा उक्त सूत्र किसी भी मूलप्रति में न होने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ का संस्कृत टीकाकार अजैन विद्वान था । इसलिए उसने अपने मत की अपेक्षा से कुछ सूत्र अपनी रुचि से रचकर मूलग्रन्थ में शामिल कर दिये हैं, अन्यथा यही आचार्य श्री यशस्तिलक में गृहस्थ का लक्षण " क्षान्तियोषिति यो सक्तः सम्यग्ज्ञानातिथि प्रियः ।। स गृहस्थो भवेन्नूनं मनोदैवत साधकः in॥"
'क्षमारूपी स्त्री में आसक्त, सम्यग्ज्ञान, और अतिथियों में अनुरागयुक्त और जितेन्द्रिय न करते ।"
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परमत अपेक्षा वानप्रस्थ का लक्षण कहते हैं :
"यः खलुयथाविधि जानपदमाहारं संसारव्यवहारं न परित्यज्य सवा बने प्रतिष्ठते स वानप्रस्थ 1123 ॥
अन्वयार्थ :- (यः) जो पुरुष (यथाविधि :) आगमानुसार (जानपदम् ) नागरिकों के (आहारम् ) अन्न-पानादि (च) और (संसार व्यवहारं) सांसारिक लेन-देनादि को (परित्यज्य) त्यागकर (सकलत्रो) स्त्री सहित (वा) अथवा ( अकलन ) पत्नीरहित (वने) वन में (प्रतिष्ठते) रहता है (सः) वह ( वानप्रस्थः) वानप्रस्थ (कथ्यते) कहा जाता
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प्राचीन टीका के सम्पादक से साभार
जो आगमानुसार विधि से लौकिक आहार व पशुपालनादि व्यवहार का त्याग कर सपली अथवा पत्नी रहित बन में निवास करता है वानप्रस्थ कहलाता है । 23 ॥
विशेष :- आचार्य श्री सोमदेवजी ने भी कहा है :
ग्राम्यमर्थं वहिश्चान्तर्यः परित्यज्य संयमी I वानप्रस्थः स विज्ञेयो न कुटुम्बवान् ॥11॥
यशस्तिलक आ.8
अर्थ :- जो ग्रामीण पुरुषों की नीति विरुद्ध प्रवृत्ति और धन-धान्यादि वाह्य तथा कामक्रोधादि अन्तरङ्ग परिग्रह का त्याग कर अहिंसा और सत्य आदि संयम धर्म को धारण करता है उसे वानप्रस्थ समझना चाहिए । स्त्री कुटुम्बादि युक्त होकर वन में निवास करना मात्र वानप्रस्थ नहीं है । चारित्रसार में ग्यारहवीं प्रतिमाधारी क्षुल्लक व ऐलक को वानप्रस्थ कहा है :
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'वानप्रस्था अपरिगृहीत जिनरूपा वस्त्रखण्डधारिणो निरतिशयतपः समुद्यता भवन्ति ।। " चारित्रसारे
अर्थ :- मुनिमुद्रा-दिगम्बर अवस्था धारण न कर खण्डवस्त्र (खण्ड चादर व लंगोटी ) धारण कर क्षुल्लक व ऐलक होकर साधारण तपश्चर्या में प्रयत्नशील हैं उन्हें " वानप्रस्थ" कहते I
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