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नीति वाक्यामृतम्
अपनी और शत्रु की शक्ति का विचार करना चाहिए । तदन्तर उपयुक्त क्रोध करना चाहिए । इसी प्रकार गृहस्थ भी अपनी सम्पत्ति, सन्तति आदि की रक्षार्थ तस्करादि के प्रति कोप करे तो अनुचित नहीं है । परन्तु सर्वत्र न्याय
क आदर्शतम दृष्टि से शास्त्रकारों ने कहा है कि क्रोध शत्र आत्मा का पतन करने वाला है । जिस प्रकार अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है उसी प्रकार कोपानल भी मनुष्य के व्रत, जप, तप, नियम, उपवास, शील, संयमादि से उत्पन्न प्रचुर पुण्यराशि को भस्म कर देता है । इसलिए महापुरुष-सन्तजन इसके वश नहीं होते । फलतः उनकी पुण्य रूप सम्पदा वृद्धिंगत होती है ।
___क्रोधीपुरुष के महीनों को उपवास, सत्यभाषण, ध्यान, वन में निवास, ब्रह्मचर्यधारण, परघरचर्या-आहार आदि सब निष्फल हैं -
मासोपवास निरतोऽस्तु तनोतु सत्यं ध्यानं करोतु विदधातु वहिनिवासम् ॥ ब्रह्मदतं धरतु भैयरमोऽस्तु नित्या । रोषं करोतियदि सर्वमनर्थकं तत् ।।2।।
सु. र. सं. अर्थात् वाह्याभ्यन्तर सभी गुण व उपसर्ग परीषह जय आदि क्षमा से स्थिर और सफल होते हैं कोप से ध्वंश हो जाते हैं । और भी कहते हैं :
दुःखार्जितं खलगतं बलभीकृतं च । धान्यं . यथा दहति पन्हिकणः प्रविष्टः ।। नानाविधवतदयानियमोपवासै: रोषोऽर्जितं भवभृतां पुरु पुण्यराशिम् ।।३।।
सुभाषि.र.सं. अर्थ:- श्रीअमित गति आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार खलिहान में एकत्रित धान्यराशि अग्निकण के द्वारा जला दी जाती है, उसी प्रकार नाना प्रकार के व्रत, दया, नियम और उपवास से संचित पुण्यराशि को क्रोध नष्ट कर देता है IB॥ इतना ही नहीं यह कोपानल अपने में ही उत्पन्न होकर अपने ही को जलाता है । यथा :
दहे त् स्वमेव रोषाग्नि परं विषयं ततः । कु ध्यन्निक्षिपति स्वाङ्गे वन्हिमन्यदिधक्षया ॥
क्ष.चूम अर्थ :- जिस प्रकार कोई मनुष्य किसी दूसरे पुरुष को अग्नि से जलाने के लिए अंगारे को अपने हाथ में लेता है तो प्रथम वह स्वयं ही जलता है - उसी का हाथ जलता है, उसी प्रकार यह क्रोध रूपी दावानल जिसके हृदय में उत्पन्न होती है प्रथम उसी के सम्यग्ज्ञान, सुख, शान्ति आदि अनेक गुणों को भस्म कर देती है । अत: नीतिज्ञान सत्पुरुषों को कोपानि से दर रहना चाहिए ।