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________________ गातों ! तब अंजना को सुनाई पड़ता-उस जगल-पाटी में दूर-दूर तक फैले पुरवों से उत्सव की गान-ध्वनियाँ आ रही हैं। बीच-बीच में हालक और खंजड़ी अविराम बन रही हैं। पृथ्वी को परिक्रमा देता हुआ यह स्वर आ रहा है। एक अनिवार आकर्षण अंजना के शरीर के तार-तार में बज उठता।...जीवन...लोचन...जीवन! उन पुरखों में होकर-उन दूर-सुदूर के अपरिचित मानवों में होकर ही उसका मार्ग गया है। अरे क्यों है यह अपरिचय, क्यों है यह अज्ञान-क्यों है यह अलगाव? असह्य है उसे यह आवरण, यह मर्यादा। इस सबको छिन्न कर उसे आगे बढ़ जाना है, उसे चले ही जाना है, जीवन पुकार रहा है! और ठीक उसी क्षण उसे अपनी वस्तुस्थिति का भान हो आता। उन परिजनों का क्या होगा? उनके दुखों की बोझिल सॉकलें उसके पैरों में बज उठती हैं। मोह है यह, क्यों ये अपने ममत्व से घिरे हैं: इसी कारण क्या नहीं है-यह दुखों की अभेद्य भव-रात्रि-यह मूर्च्छना का अन्धकार ? इसी कारण यह अज्ञता और अपरिचय है-इसी कारण यह राग-द्वेष और अपना-पराया है। पर उनके प्रति वह करुणा और सहानुभूति से भर आती है। उनका दुःख उसे ही लेकर तो है-वे भी तो पर-दुःख-कातर हैं। उनकी वेदना को भी उसे झेलना ही होगा। उनके और अपने दुःखों की संकलता को चीरकर ही राह मिलेगी। नहीं, उन्हें छोड़कर वह नहीं जा सकेगी। यह शायद जीयन से मुँह मोड़ना होगा-पराजित का पलायन होगा। वह स्वार्थ है-अपने ही स्वच्छन्द सुख की खोज में औरों की उपेक्षा है। कर्तव्य और शयिच उसका सपन के प्रति है, लोक और लोकालय उससे बाहर नहीं है। यह जाएगी किसी दिन, उपेक्षा करके नहीं, उनके प्रेम की अनुमति लेकर-आशीर्वाद लेकर । तब वह निश्चिन्त होगी, मुक्त होगी और सबके साथ होगी। यों टूटकर और छूटकर वह नहीं जाएगी। एकाकारिता की इस साधना में वह अलगाव का क्षत अपने पोछे नहीं छोड़ेगी। मन में कोई फाँस लेकर वह नहीं जाएगी। कोई दूरी, कोई विरह-वियोग, कोई अभाव का शून्य वह नहीं रहने देगी! ...कि एक सुदीर्घ-बिरह-रात्रि का प्रसार उसके हृदय में झौंक ज्छता...कौन आया चाहता है...? यो हो वर्ष-पर-वर्ष बीतते जाते हैं। मृगवन की शिला पर जब प्रातः सामायिक निवृत्त हो वह आँख खोलती तो अरुणाचल पर बालसूर्य का उदय होता दीख पड़ता 1 साँझ का कायोत्सर्ग कर जब वह आँख उठाती, तो नीलगिरि की बनाली में पीताभ चन्द्र उदय होता दिखाई पड़ता। वह जो सतत आ रहा है...परम पुरुष...उसी के तो आभावलय हैं ये बिम्ध! और उन बिम्बों में होकर कोई मृग छलाँग भरता निकल जाता है...यों ही वर्ष भाग रहे हैं...काल भाग रहा है...और उसके ऊपर होकर अबाधित चला आ रहा है वह अतिधि! 7th : मुक्तिदा
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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