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________________ है, तो किस पुरुष का अत्याचार है जो हमें तोड़ सकता हैं? पुरुष सदा नारी के निकट बालक है। भटका हुआ बालक एक दिन अवश्य लौट आएगा।" अविकल आत्मसमर्पण के साथ, अंजना में मिथ्या मूल्यों के प्रति एक सशक्त और प्रबद्ध विद्रोह है। प्रत्येक परिस्थिति में अपना मार्ग वह स्वयं बनाती है। 'मुक्तिदूत' की कथा-वस्तु जितनी तल पर है, उतनी ही नहीं है। उसके भीतर एक प्रतीक-कथा (Allegory) चल रही है, जिसे हम ब्रह्म और माया, प्रकृति और पुरुप की द्वन्द्ध-लीला कह सकते हैं। अनेक अन्तर्द्वन्दु-मोह-प्रेम, विरह-मिलन, रूप-सौन्दर्य, दैव-पुरुषार्थ, त्याग-स्वीकार, दैहिक कोमलता-आत्मिक मार्दय, ब्रह्मचर्य-निखिलरमण और इनके आध्यात्मिक अर्थ, कथा के संघटन और गुम्फन में सहज प्रकाशित हुए हैं। आज के युग में जो एकान्त बुद्धियाद और भावना या हृदयवाद-अहंकार और आत्मार्पण-के मार्गों में संघर्ष है, वह पवनंजय के चरित्र में सहज ही व्यक्त हुआ है। पवनंजय इस बात का प्रतीक नि. वह पदार्थक साह से पकड़कर पर विजय पाना चाहता है। यहीं अहंकार उपजता है-आज का बुद्धिवाद, भौतिकवाद और विज्ञान की अन्य साहसिक वृत्ति (Adventure) इसी 'अहं के प्रतिफल हैं। विज्ञान इस अर्थ में प्रत्यक्ष वस्तुवादी है-वह इन्द्रियगोचर तथ्य पर विजय पाने को ही प्रकृति-विजय मान रहा है। यहाँ उसकी पराजय सिद्ध होती है। इसी में से उपजती है हिंसा और महायुद्ध; और यहीं से उत्पन्न होता है निखिल संघातकारी एटम बम! श्री वीरेन्द्र कुमार ने मूल पौराणिक कथा को कहीं-कहीं नया संस्पर्श दिया है, और निखारा है। मूलकथा में युद्ध गीण है पर यहाँ युद्ध-सम्बन्धी एक समूचा अध्याय जोड़ दिया है, जिसमें अहिंसक युद्ध की कल्पना को व्यावहारिक रूप दिया है। लेखक की कथा में युद्ध में जाकर स्त्री के दिये हुए निःस्व उत्सर्ग और महान प्रेम के बल पर पुरुष के सच्चे पुरुषार्थ का सर्वश्रेष्ठ प्रकाश सामने आया है। पाठक पाएँगे कि अंजना के प्रकृतिस्थ तादात्म्य को नारी की जिन संवेदनाओं के साथ दिखाया गया है, उसमें लेखक ने दुराव से काम नहीं लिया है। वर्णन सीधा और सधा हुआ है। उसमें कुछ भी हीन नहीं है। अंजना के लिए समस्त सष्टि-लता, वृक्ष, पृथ्वी, पश, पक्षी-सजीव और साकार प्रकृति के अखण्ड रूप हैं। यह स्वयं प्रकृति है, इसलिए उन अखण्ड रूपों में रम जाना उसके निसर्ग की आवश्यकता है। हाँ, वह आकुल है विराट के लिए-उस आलोक पुरुष के लिए-जो उसका प्रणयी हैं, जो उसका शिशु है। प्रणय और वात्सल्य की आदिम भावनाओं के निराकुल और विदेह प्रदर्शन में 'प्रणयी' और 'शिशु' को अलग-अलग खोजना और उस सम्बन्ध में लौकिक दृष्टि से तर्क करना चाहें तो आप करें-लेखक सम्भवतया इससे परे है। यों तो आप दो प्रश्न करें, तो तीन प्रश्न मैं भी कर सकता हूँ-‘चादे. वादे जायते तत्व-त्रोधः'। ::13::
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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