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________________ और अंजना? यह शिला पर दोनों ओर हाथ टिकाकर और भी खुलकर बैठी है। वह निर्द्वन्द्व है और निरुद्वेग है। इत भयानकता के प्रति वह पूर्ण रूप से खुली हैं। आत्मा का चिर दिन का रुद्ध वन-द्वार मानो खल गया है। ये झंझाएँ, ये प्रष्टि-धाराएँ, यह मेघों का विप्लवी घोप, ये तड़पती बिजलियाँ, सभी उस द्वार में से चले जा रहे हैं। इस महापरग की छाया में हृदय का पद्म अपने सम्पूर्ण प्रेम को मुक्त कर खिल उठा है। प्रलय की बहिया पर मानो कोई हँसता हुआ वन-कुसुम बहा जा रहा है। पानी की बौछारों और हवाओं की चपेटों में यह सुकुमार देह-लता सिकुड़ना नहीं चाहती। वह तो पुलकित होकर खुल-खिल पड़ती है। वह तो सिहरकर अपने को और भी बिखेर देती है। आँखें प्रगाढ़ता से मुंदी हैं-और ऊपर मुख उठाये वह मुसकरा रही है-मौन, मुग्ध, महानन्द से विकल, आवंदन की मक्त वाणी-सी। और साथ की सभी अन्य बालाएँ भय से थर्रा उठी हैं। ऋतु के आघातों में वे अपने को संभाल नहीं पा रही हैं। और पिपराज्ञी की निता सवापार ही जी है। अंजना को पता नहीं कब वे सब आकर उसके आस-पास लिपट-चिपटकर बैठ गयी हैं। भय-चिन्ता और उद्वेग से वे कॉप रही हैं। उन्होंने चारों ओर से अपने शरीरों से ढाँपकर अंजना की रक्षा करनी चाही। अंजना उस अवरोध को अनुभव कर घबरा उठी। माथे पर छायी हई वसन्त की 'भुजाओं को और चारों ओर घिर आयी सखियों के शरीरों को झकझोरकर वह उठ बैठी "अरे यह क्या कर रही हो : ओ बसन्त जीजी! आंह, समझ गयी, चारों और से ढापकर इस ऋतु-प्रकोप से तुम मेरी रक्षा करना चाहती हो। पर आज तो बयां का उत्सव है-भीगने का दिन-मान है, आज क्यों कोई अपने को बचाए : देखो न, ये मयूर लास्य के आनन्द में अचेत हो गये हैं। इस वर्षा के अविराम छन्द नृत्य से भिन्न इनकी गति नहीं। चारों ओर एक विराट आनन्द का नृत्य चल रहा हैं। मेघों के मृदंगों पर विजलियाँ ताल दे रही हैं। ये झाड़ियाँ हवा के तारों पर अधान्त थिरक रही हैं। ये झाड़ झूम-झाम रहे हैं-लताएँ, तुण-गल्म, सभी तो नाच-नाचकर लोट-पोट हो रहे हैं-सभी भीग रहे हैं रस की इस धारा में। कोई अपने को बचाना नहीं चाहता। आओ, इनसे मिले-जुलें, प्यार का यह दुर्लभ क्षण फिर कब आनेवाला है?" अंजना ने दोनों हाथों से तापने केश भार को उछाल दिया। बालिका-सी दरम्त और चपल होकर कह चारों ओर नाच उठी। सखियाँ उसके पीछे दौड़-दौड़कर उसे पकड़ना चाहती हैं-पर वह हाथ कब आनेवाली है। शरीर पर वस्त्र की मयांदा नहीं रहीं हे। और, धन के तनों में वह बेतहाशा आँखमिचौली खेल रही है। वसन्त के प्राण सूख रहे हैं पर वह क्या करें-यह अंजना उसके बस की नहीं है। जो भी वह, जानती है, यह राजोपयन का ही सीमान्त हैं, और यहाँ कोई आ नहीं सकता है। फिर भी समय-मृचकता आवश्यक है। अंजना के स्वभाव में वह लीलाप्रियता नयों tili : मुनित
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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