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________________ यह कोख का जाया, क्यों पराया हो उठा है? गनी का हृदय मानो बुझता हो जाता हैं, ड्रावता ही जाता है, और फिर बिजली-सा प्रज्वलित हो उट रहा है। वह अपने मातृत्व के अधिकार को हार बैठी है। पर वहीं तो है यह पवन, आप ही ललककर तो मां की गोद की शरण आया है। गोद फड़क उठती है कि अभी पास दौंचकर छाती से लगा लेंगी। कि उसी अविभाज्य क्षण में हिम्मत टूट गयी है-भुजाएँ द्वीली पड़ गयी हैं। पुत्र के ऊपर होकर पुरुष,-दुर्जेय, दुनिवार, दुरन्त पुरुष का आतंक सामने एक चट्टान-सा आ जाता है। गहरी निःश्वास छोड़कर माता ने सारी शक्ति बटोर, भराये कण्ठ से पाला"पवन, माँ से छुपाओगे? बोलो...मेरे जी की सौगन्ध है तुम्हें!" । पवन ने पहली बार आँखें माँ की ओर उठा दीं। उन आँखों में कहरा छाया है। वे थमी हैं अपलक । बियाबानों की भयावनी शून्यता है उनमें; दर्गम कान्तारों की दीहड़ता है और पत्थरों की निर्ममता । बेरोक खुली हैं वह दृष्टि, पर उसे भेदकर उस बेटे के हृदय तक पहुँचाना मों के बस का नहीं है। कुछ क्षण सन्नाटा बना रहा। पवनंजय ने चित्त के स्वस्थ होने पर खरा कण्ठ का परिष्कार कर कहा "अपने बेटे को नहीं पहचानती हो माँ? अपने ही अन्तरंग में झाँक देखो, अपनी ही कोख से पूछ देखो-मुझसे क्यों पूछ रही हो?" "बेटा, अभागिनी माँ की ऐसी कठोर परीक्षा न लो। तुम्हें जनकर ही यदि उससे अपराध हो गया है तो उसे क्षमा कर दो! शायद तुम्हारी माँ होने योग्य नहीं थी मैं अभागन, इसी से तो नहीं समझ पा रही हैं।" पयनंजय की आँखों में जो रहस्य का कहरा फैला था, वह मानो धीरे-धीरे लुप्त हो गया है। और आँखों के किनारों पर पानी की लकीरें चमक रही हैं. जैसे विद्युल्लेखाएँ वर्षा के आकाश में स्थिर हो गयी हों। ___ "माँ, येटे को और अपराधी न बनाओ। उसे यों ठेले दे रही हो? फिर एक बार चूक गया। इस गोद में शरण खोजने आया था-पर शरण कहाँ है? वह झूठ है-वह मरीचिका है। सत्य है केवल अशरण : नहीं, इस गोद में शरण पाने योग्य अब मैं नहीं रहा हूँ माँ। मुझे क्षमा कर देना, कहने को मेरे पास कुछ नहीं है-" कहकर पवनंजय छत को फटी आँखों से ताकते रह गये। पानी की ये विद्युल्लेखाएँ आँखों के किनारों पर अचल थमी थीं। "पवन यह क्या हो गया है मुझे? तुझे पहचान नहीं पा रही हूँ। मेरी कोख कुण्ठित हो गयी है-मेरा अन्तरंग शून्य हो गया है। अपनी माँ के हृदय पर विश्वास करो, पवन। वहाँ तुम्हारे मन की बात अन्तिम दिन तक छुपी रहेगी। कहीं भी जाओ-चाहे मौत से खेलने जाओ, पर मुझसे कहकर जाना; जीत सदा तेरी होगी।" मुक्तिदूत ::
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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