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________________ पर पूरा पसार दिया। भौंहों के कुंचन में अपने को संभालते हुए दीवानलाने के द्वार की और उँगली उठाकर बोले "उस ओर देखो प्रहस्त! विजयाद्ध के शृंगों पर नवीन सूर्य का उदय हो रहा हैं। हर नवीन सूर्योदय के साथ मैं नवीन जय-यात्रा का संकल्प करता हूँ। जो मंजिल विगत हो चुकी है-उसका अब क्या ज़िक्र और कैसी चिन्ता? दिनों बीत गये उस कथा को। बिदा होने से पहले मानसरोवर के तट पर एक शिलाचित्र गाड़ आया था। उस अतीत क्षण की याद उसे कुछ हो तो हो; चाहो तो जाकर उससे पूछो। पर समय के प्रवाह में अब तो वह भी उखड़ गया होगा। सत पल-पल लठ रहा है-मिट रहा है और अपने निज रूप में ध्रुव होते हुए भी वह प्रवहमान है। सत्ता स्वतन्त्र है और निरन्तर गतिशील है। विगत, आगत और अनागत से परे वह चल रही है। प्रगति-पार्ग का राही पीछे मुड़कर नहीं देखता। परम्परा राग-ममकार के कारण है-और उससे मैं छुट्टी ले चुका हूँ। जो पल ठीक अभी बीत चुका है, उसका ही मैं नहीं हूँ तो कल का क्या ज़िक्र-?" "मेरी धृष्टता को क्षमा करना पवनंजय, एक बात से सावधान किया चाहता हूँ| आत्म-स्वातन्त्र्य के इस आदर्श की ओट में कहीं दुर्बल का हीन अहंकार न पल रहा हो। आत्म-रमण के सुन्दर नाम के आवरण में व्यक्ति की उच्छृखल इच्छाओं का नग्न प्रत्यावर्तन न चल रहा हो। आत्म और अहं का अन्तर जानना ही सबसे बड़ा भेद-विज्ञान है। स्व-पर के भेद-विज्ञान में दम्भ और स्वार्थ को काफ़ी अवसर हो सकता है। आत्मा मात्र स्व है और अनात्मा पात्र पर है। अनात्म शरीर के उपचार से अन्य की आत्मा को 'पर' कहकर दायित्व से मुँह मोड़ना स्वार्थी का पलायन है! वह भीरुता है-वह निवीर्यता और असामर्थ्य का चिह्न है। सबसे बड़ा ममकार अपने 'मैं' को लेकर ही है! सबको त्यागकर जो अपने 'मैं' को प्रस्थापित करने में लगा है, वह वीतरागी नहीं; वह सबसे बड़ा भोगी और रागी है। वह ममता का सबसे बड़ा अपराधी है। अपने 'मैं' को जीत लो, और सारी दुनिया विजित होकर तुम्हारे घरणों में आ पड़ेगी। मुक्ति विमुखता नहीं है, पवन, वह उन्मुखता है। अपने आप में बन्द होकर शून्य में भटक जाने का नाम मुक्ति नहीं हैं। समग्र चराचर को अपने भीतर उपलब्ध कर लेना है-या कि उसके साथ तदाकार हो जाना है। इस "मैं को मिटा देना है, बहा देना है, अणु-अणु में रमाकर एक-तान कर देना है-!" बीच ही में अधीर होकर पवनंजय बोल उठे "मुक्ति का मार्ग किसी निश्चित सड़क से नहीं गया है, प्रहस्त! मेरा मार्ग तुमसे भिन्न हो सकता है। आत्म-साधना का मार्ग हर व्यक्ति का अपना होता है। मित्र की सलाह उसमें कुछ बहुत काम नहीं आती। अपना दर्शन अपने तक ही रहने दो तो अच्छा है। दूसरों पर वह लादना भी एक प्रकार का दुराग्रह ही होगा।" "तो अपनी एक जिज्ञासा का उत्तर में योगीश्वर पचनंजय से पाया चाहता 56 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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