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________________ जल बारहों महीने भरा रहता हैं; बड़े-बड़े कछुए, अजगर, मच्छ और केकड़े उसमें तैरते दिखाई पड़ते हैं। . इस पारेखा के बीच कजल और भूरे पाषाणों के आठ विशाल दिग्गजों की कुरसी बनी है, जिस पर 'विजेता' का यह प्रासाद झूल रहा है। नौ खण्डों के इस महल में चारों ओर अगणित द्वार-खिड़कियाँ सदा खुली रहती हैं, जिनमें से आर-पार झाँकता हुअा आकाश मानो खण्ड-खण्ड होता दिखाई पड़ता है। अनेक पार्वत्य नदियों के प्रवाहों में पड़े हुए, निरन्तर लहरों के जल-संघात से चित्रित हरे, नीले, जामुनी और भूरे पाषाणों से इस महल का निर्माण हुआ है। पहले ही खण्ड में चारों ओर पहल की घेरकर जो मेखला-सो गवाक्ष-माला बनी है, उसके सम्बलों में सप्त धातु की मोटी-मोटी खसाएँ लटक रही हैं, जो कुरसी के दिग्गजों के कुम्भस्थलों को बाँध हए हैं। महल के सर्वोच्च खण्ड पर पंच मेरुओं के प्रतीक स्वरूप सोने के पाँच भव्य शिखर हैं, जिन पर केशरिया ध्वजारों उड़ रही हैं। सामने की ओर परिखा को पाटता हुआ जो महल का प्रवेश-द्वार है, उनके दोनों ओर सजीव-से लगनेवाले सोने के विशाल सिंह बने हैं। पीछे के वन्य-प्रदेश में दूर पर कुछ पहाड़ियों से घिरी एक प्राकृतिक झील पड़ी है। गुहाओं में दारती हुई पानी की झिरिया बनों में होकर झोलाम आती रहती है, जिससे झील का पानी कभी सूखता नहीं है। झील के दोनों ओर के तटभागों में सघन अटवियों फैली हैं। महल के पूर्वीय वातायन पर खड़े होकर देखा जा सकता है कि कभी चाँदनी रात में या फिर किसी शिशिर की दोपहरी में सिंह झील के किनारे पानी पीने आते हैं। वह प्रदेश प्रायः निर्जन-सा है, क्योंकि वहीं से विजया की के दुर्गम खाइयाँ और विकर अरण्य-वीथियाँ शुरू हो गयी हैं-जो आस-पास के जन-समाज में प्रायः अगम्य मानी जाती हैं और जिनके सम्बन्ध में लोक में तरह-तरह की रहस्य-भरी कथाएं प्रचलित हैं। भय और मृत्यु की घाटियों पर आरुद्ध यह 'जेता' का स्वप्न-दुर्ग है। देव पवनंजय यहाँ अकेले रहते हैं-सिर्फ कुछ प्रतिहारियों के साथ । पुरुष यहाँ वही अकेला है-दूसरा कोई नहीं। दिशाएँ उसकी सहचरियों और सपने उसके साथी। पौ अभी नहीं फटी है। प्रतिहारियाँ दालान में ऊँघ रही हैं। द्वार के सिंह से सटकर जो पुरुष सीढ़ियों पर बैठा है, वह अखण्ड रात जागता बैठा रहा है। अभी-अभी सवेरे की ताजी हवा में उसकी आँख झपक गयी है। अचानक घोड़े की टाप सुनकर वह पुरुष चौंका । उसने गरदन ऊपर उठाकर देखा। वोड़े से उतरकर पवनंजय क्षण-भर सहम रहे। फिर एक झटके के साथ वे आगे बढ़ गये और दुर्निवार वेग से महल की सोढ़ियाँ चढ़ गये। उसी वेग में बिना मुड़ ही कहा __ “ओह, प्रहस्त! अ...आआ..." मुक्तिदूत :: 5:3
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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