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________________ के सैन्य को रोक दिया है? दीखा कि कुछ ही दूर थोड़ों पर महाराज प्रह्लाद, महाराज महेन्द्र, मित्र प्रहस्त और कुछ घुड़लवार चले आ रहे हैं। महाराज के संकेत पर ही सेनाधिप ने विराम का शंखनाद किया है I कुछ निकट आकर वे सब घोड़ों से उत्तर पड़े। महाराज प्रह्लाद ने अकेले प्रहस्त को ही भेजा कि वे पवनंजय से लौट चलने का अनुरोध करें। महाराज पुत्र का स्वभाव जानते थे और खूब समझते थे कि प्रहस्त यदि पबनंजय को न लौटा सके, तो वे तो क्या, फिर विश्व को कोई भी शक्ति कुमार को नहीं लौटा सकती। सन्दिग्ध और व्यथित प्रहस्त रथ के निकट पहुँचे घोड़े से नीचे उतर पड़े ! सारथी को घोड़ों की बल्गा क्षमाकर, गरिमा से मुसकुराते हुए पवनंजय रथ से नीचे उत्तर आये। पर उस गरिमा में तेज नहीं था, महिमा नहीं थी, थी एक बुझी हुई अल्प-प्राणता । वह चेहरा जैसे एक रात में ही झुलसकर निष्प्रभ हो गया था । प्रहस्त चुपचाप पवनंजय का हाथ पकड़ उन्हें जरा दूर एक झरने के नजदीक ले गये । एकाएक दूसरी ओर देखते हुए प्रहस्त ने मौन तोड़ा"तुम्हारे के शव को छूने के लिए अब बहुत छोटा पड़ गया है, पवन और वैसी कोई धृष्टता करने आया भी नहीं हूँ। आदित्यपुर और महेन्द्रपुर के राजमुकुट भी तुम्हारे चरणों को शायद ही पा सकें, इसीलिए उन्हें पीछे छोड़ आया हूँ पर यह याद दिलाने आया हूँ कि अपने ही से हारकर भाग रहे हो, पवन! क्षत्रिय का वचन टलता नहीं है। इस विवाह को लेकर परसों रात महादेवी से तुमने क्या कहा था, वह याद करो। उसके भी ऊपर होकर यदि तुम्हारा मार्ग गया है, तो संसार की कौन-सी शक्ति हैं जो तुम्हें रोक सकती है?" सुनते-सुनते पवनंजय विवर्ण हुए जा रहे थे कि एकाएक उत्तेजना और रोष से उनका चेहरा तमतमा उठा। "वह मोह था प्रहस्त, मन की क्षणभंगुर उमंग। निर्बलता के अतिरेक में निकलनेवाला हर वचन निश्चय नहीं हुआ करता। और मेरी हर उमंग मेरा बन्धन बनकर नहीं चल सकती। मोह की रात्रि अब बीत चुकी है, प्रहस्त प्रमाद की वह मोहन- शय्या पवनंजय बहुत पीछे छोड़ आया है। कल जो पवनंजय था, वह आज नहीं है। अनागत पर आरोहण करनेवाला विजेता, अतीत की साँकलों से बँधकर नहीं चल सकता। जीवन का नाम है प्रगति । ध्रुव कुछ नहीं है प्राहस्त, स्थिर कुछ नहीं है। सिद्धात्मा भी निजरूप में निरन्तर परिणमनशील है: ध्रुव है केवल मोह - जड़ता का सुन्दर नाम - !” - "तो जाओ पवन, तुम्हारा मार्ग मेरी बुद्धि की पहुँच के बाहर है। पर एक बात मेरी भी याद रखना- तुम स्त्री से भागकर जा रहे हो। तुम अपने ही आप से पराभूत होकर आत्म- प्रतारणा कर रहे हो। घायल के प्रलाप से अधिक, तुम्हारे इस मुक्तिदूत :: 35
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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