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________________ गया है मेरे लाल...घोर अमंगल हो गया है...। छाती में लात मारकर मैंने लक्ष्मी को ठेल दिया है। मैंने लती पर कलंक लगाकर उसे इस घर से निर्वासित कर दिया है... । यसन्त के कहे पर मैंने विश्वास नहीं किया-तेरे वलय और मुद्रिका उठाकर फेंक दिये। अपने भीतर का सारा विष उँडेलकर मैंने सती की अवमानना की है। आह...उसके गर्भ में आये अपने कुलधर का ही मैंने पात किया है। वंश को परम्परा को ही मैंने तोड़ दिया है।--कल-लक्ष्मी को धक्का देकर मैंने राजलक्ष्मी का आसन उच्छेद कर दिया है। एक साथ मैंने सती-घात, कल-घात, राज्य-घात, पसि-पात और पुत्र-चात का अपराध किया है, बेटा...! मैं तुम्हारी माँ नहीं. मैं तो राक्षसी हूँ। मुझे क्षमा मत करो बेटा--मुझ पर दया करके मुही अपने पैरों तले कचल डालो-तो सुगति पा जाऊँगी-और नहीं तो सातवें नरक में भी मन पापिन को स्थान नहीं मिलेगा... कहती-कहती रानी धमाक् से पुत्र के पैरों में गिर पड़ी। पवनंजय पहले तो अचल पाषाण की तरह सब कुछ सुन गये, मानो आत्मा ही लुप्त हो गयी हो। पर ज्यों ही माँ पैरों में गिरी कि हाँझलाकर पैर हटा लिये और छिटककर दूर खड़े हो गये। एक क्षुब्ध सन्नाटा कक्ष में व्याप गया ! दोनों हाथों में मुँह टॉपकर मार गट्टी देर तक निस्पन्द और अकम्प होकर अपने भीतर डूब रहे...। फिर एकाएक घुमड़ते मेघ-से गम्भीर स्वर में गरज उठे ५...धिक्कार है यह पुरुषत्व और वीरत्व-धिक्कार है मेरी यह विजयगरिमा, धिक्कार है यह राज्य, यह सिंहासन, यह प्रमत्त वैभव और ऐश्वर्य-धिक्कार है यह कौलीन्य, यह सतीत्व, यह शील और यह लोक-मर्यादा। सत्य पर नहीं, हमारे अहंकारों और स्वार्थों पर टिका है यह सदाचारों का पृथुल विधान...!--आह रे दम्भी पुरुष, देवत्व, ईश्वरत्व और मुक्ति के तेरे ये दावे धिक्कार हैं! निपीड़क, नृशंस, यर्डर! युग-युग से तूने अपने पशु-बल के विषाक्त नखों से कोपला नारी का वक्ष चीरकर उसका रक्त पिया है...!-उस वक्ष का जिसने अपने रक्त-मांस में से तुझे पिण्डदान किया और जन्म देकर अपने दूध से तुझे जीवनदान किया। और उसी पर संदा तूने अपने वीरत्व का मद उतारना चाहा है! उस विधात्री और शक्तिदात्री से शक्ति पाकर, आप स्वयं उसका विधाता और नियम्ता बनने का गौरव लिये बैठा है?..धर्त, पाखण्डी, कापुरुष...!...मेरे उसी पुरुषत्व का यह जन्म-जन्म का निदारुण अपराध है कि ऐसा अमंगल घटा है। यह एक पुरुष या एक स्त्री का दुर्दैव नहीं है, प्रहस्त, यह हमारी परम्परा के मर्म का प्रण फूटकर सामने आ गया है--जियो माँ-जियो, तुम्हारा दोष नहीं है। सती की अवमानना तुमसे पहले मैंने की है, उसी का दण्ड मैं भोग रहा हूँ। इसमें तुम्हारा और किसी का क्या अपराध...?" क्षणभर चुप रहकर कुमार ने पिता की ओर निहारा।-मुकुट धरती में लोट रहा है। राज्यत्व और क्षात्रत्व अपने पराभव से भूलुण्ठित और विध्वस्त होकर धूल 220 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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