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________________ 30 उत्सव के पांचवें दिन, प्रातःकाल--- अन्तरीप के छोर पर, स्फटिक का एक उच्च लोकाकार स्तम्भ, आकाश और समुद्र की सुनील पीठिका पर खड़ा है। उसके चरणों में चिर कुमारिका पृथ्वी लहरों का संबल यस-न बार-बार खस.मा.का जगमग कर रही हैं। तम्भ के शीर्ष पर वैड्रयमणि की एक भव्य अधे-चन्द्राकार सिद्ध-शिला विराजमान है।-समुद्र, आकाश और पृथ्वी एक साथ उसमें प्रतिविम्बित हैं। सूर्य की किरणें उसमें टूटकर ज्योति की तरंगें उठा रही हैं। मानो त्रिलोक और त्रिकाल के सारे परिणमन उसमें एक साथ लीलायित हैं। स्तम्भ के पाद-प्रान्त में, परकत के एक प्रकाण्ड मगर के मुख पर, चारों समुद्रों के गुलाबी और शुभ्र मोतियों से निर्मित, तीन खण्ड का सिंहासन शोभित हैं। उसकी सर्वोच्च वेदिका के बीच चक्री का देयोपनीत सिंहासन-रत्न है। वह राज्यासन इस समय रिक्त पड़ा है। केवल उसके दायीं ओर उपधान के सहारे बह दण्ड-रत्न रखा हआ है। उसकी पीठिका में पन्नों और नीलमों का वह कल्पवृक्षाकार भामण्डल है। उसके ऊपर बड़े-बड़े अंगूरी मुक्ता की झालरोंवाले तीन छत्र दीपित हैं, जिनकी प्रभा में निरन्तर लहरों का आभास होता रहता है। इस सिंहासन की सीढ़ियों पर दोनों ओर चक्री की नाना भोग और विभूतियों देनेवाली निधियाँ और रत्न सजे हैं। सबसे ऊपर की सीढ़ी पर बीचोंबीच चक्र-रत्न घूम रहा है। सर्वोच्च वेदी की कटनी में एक ओर, चन्दन की एक विशद चौकी पर डाभ का आसन विछा है। उसी पर रावण अपनी दक्षिण भुजा में वरुणदीप के राजा वरुण को आवेष्टित किये बैठे हैं। दूसरी ओर ऐसे ही डाम के आसन पर बैठे हैं कुमार पवर्नजय। सिंहासन के तले, खुले आकाश के नीचे, जम्बूद्वीप के सहस्रों मुकुटबद्ध राजा और विद्याधर अपने विपुल सैन्य-परिवार के साथ बैठे हैं। फूटने को आतुर कली की तरह सभी के हृदय एक अपूर्व सुख के सौरभ से आयिल हैं। अवाक् निस्तब्धता के बीच खड़े होकर, त्रिखण्डाधिपति ने अपने चक्र के समस्त राजवियों के प्रति नम्रीभूत होकर, पहली ही बार, अपना मस्तक झुका दिया। तदुपरान्त समुद्र के गम्भीर गर्जन को चिनिन्दित करनेवाले स्वर में रायण बोले "लोक के हृदयेश्वर देव पवनंजय और मित्र राजन्यो, लोक के शीर्ष पर सिद्धशिला में विराजमान सिद्ध परमेष्ठी साक्षी हैं : त्रिखण्डाधिपति रावण का गर्व, उसका सिंहासन, उसका चक्र और उसकी समस्त विभूतियों आज से लोक की सेवा में अर्पित हैं। इन पर स्वामित्व करने का मेरा सामर्थ्य इस रणक्षेत्र में पराजित हुआ है। मेरी आँखों के आगे, मेरे ही पुण्य-फल इस चक्र-रत्न ने विद्रोही होकर मेरे 212 :: पुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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