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________________ हो जाएगी। लोक में मेरे वीरत्व पर लांछन लगेगा...नहीं, यह नहीं होगा...कल सवेरे रणक्षेत्र में ही उसके भाग्य का निर्णय हो जाएगा..." नरेन्द्रचक्र के स्कन्धाचार में अविराम रणवाद्य के प्रचण्ड घोष के बीच, दिन और रात युद्ध का साज सजता रहा।। उधर पवनंजय के शिविर में अखण्ड निस्तब्धता का साम्राज्य था। रात की प्रकृत और गहन शान्ति में एक निर्वेद कण्ठ का प्रच्छन्न और मृद-मन्द स्वर हवा में गूंजता हुआ निकल जाता। मानो अगोचर से आती हुई वह आवाज़ कह रही थी'...अमृत-पत्रो, प्राण लेकर नहीं, प्राण देकर तुम्हें अपने अजेय वीरत्व का परिचय देना है। अन्तिम विजय मारनेवालों की नहीं, मरनेवालों की होगी। अपने ही प्राण विसर्जित कर असंख्य मानवता के जीवन का पोल हमें चुकाना होगा। प्रहारक के तने हुए शस्त्र की धार पर अपना मस्तक अर्पित कर हमें अपने अमरत्व का परिचय देना होगा।-फिर देखें विश्व की कौन-सी शक्ति है जो हमारा घात कर सकेगी। वीरो, जीवन और मृत्यु साथ-साथ नहीं रह सकते। यदि हम सचमुच जीवित हैं और हमें अपनी जीवनी-शक्ति पर विश्वास है; तो जीवन की उस धारा को खुली और निर्बाध छोड़ दो-फिर मौत कहीं नहीं रह जाएगो । चारों ओर होगा...जीवन...वन...जांधन...' एक मानव के इस अस्खलित और केन्द्रित नाद में सहस्रों मानवों की प्राण-शक्ति एकीमृत ओर तन्निष्ट हो गयी थी। रात्रि की गहन-शान्ति में हवाओं के झकोरों पर अनन्त होता हुआ वह स्वर, निखिल जल-स्थल और आकाश में परिव्याप्त हो जाता। दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय की वेला में, रणक्षेत्र में दोनों ओर के सैन्य सज गये। अधिकल तूर्य-नाद, दुन्दुभिघोष और रणवादित्रों के उत्तरोत्तर बढ़ते स्वरों ने समस्त चराचर को आतंकित कर दिया। एक ओर अपने देवाधिष्ठित सप्ताश्व रथ के सर्वोच्च सिंहासन पर महामण्डलेश्वर महाराज रावण अपने परिकर सहित आरूद हैं, और उनके पीछे जम्बूद्वीप के विशाल नरेन्द्रचक्र का अपार सैन्य-बल युद्ध के लिए प्रस्तुत है। चक्री के रथ के आगे उनके चक्रवर्तित्व का उद्घोषक चक्र तेजोभासित घूम रहा हैं। दूसरी ओर आदित्यपुर के युवराज पवनंजय एक अरक्षित और निश्छत्र रथ पर, अकेले खड़े हैं, अपने पीछे एक छोटी-सी सेना लेकर-! रावण ने पहचाना-वही आलुलायित अलकोंबाता मस्ताना तरुण सामने खड़ा है। बालों की वही मनमोहिनी घुघुर ललाट पर खेल रही हैं। और उस कोमल-कान्त परन्तु जाज्वल्य मुख पर, एक हृदयहारिणी मसकांन सहज ही खिली है। चक्री की चढ़ी भृकुटियों में क्रोध से अधिक विस्मय था और विस्मय से अधिक एक अपूर्व मुग्धता। समुद्र के भितिज पर, ऊषा के अरुण चौर में से उगते सूर्य की कोर झाँकी-| युवराज पवनंजय ने अपने रथ पर खड़े होकर दो बार युद्धारम्भ का शंखनाद किया। एक भीषण लोक-यर्षण के साथ, यारों और शस्त्रास्त्र तन गये। आयुधों के फलों 211] :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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