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हें। - यही होगा उनका मीरचा । अकेले ही वहाँ उन्हें लड़ना है। दूसरा कोई जन उनके साथ वहाँ नहीं होगा, अभिन्न तखा प्रहस्त भी नहीं। उनका प्रतिकार क्या होगा, वे स्वयं नहीं जानते, लो उस सम्बन्ध में वे कुछ कह भी नहीं सकते। निश्चय हुआ कि उस कक्ष में अनिश्चित काल के लिए वे बन्द रहेंगे। आवश्यकता की चीजें एक खिड़की से पहुँचा दी जाएँगी।
योजना में राजा की सहमति या अनुमति की प्रतीक्षा किये बिना ही, कुमार ने अनुरोध किया कि तुरत उन्हें अपने निर्दिष्ट मोरचे पर पहुँचा दिया जाए। जरा भी देर होने में अवसर हाथ से निकल जाएगा। - इस रहस्यमय युवक की यह लीला राजा की अपनी बुद्धि से परे जान पड़ी। उसके सम्मुख कोई वितर्क नहीं सूझता है, अनायास एक विशाल और श्रद्धा ही से वे ओत-प्रोत हो उठे हैं। मात्र इसका अनुसरण करने को वे बाध्य हैं, और कोई विकल्प मन में नहीं है।
राजा ने तुरत अपने एक अत्यन्त विश्वस्त चर को बुलाकर पवनंजय को यथास्थान पहुँचाने की पूरी हिदायतें दे दीं। चलती बेर कुमार ने प्रहस्त को बिना बोले ही भुजाओं में भरकर भेंट लिया। फिर प्रहस्त की ओर इंगित कर, याचना की एक मूक दृष्टि उठाकर राजा की ओर देखा; मानो कहा हो कि "यह मेरा अभिन्न तुम्हारे संरक्षण में है, मैं तो जा रहा हूँ-जाने कब लौट आने के लिए... "
आगे-आगे चर और पीछे-पीछे पवनंजय चल दिये; मुड़कर उन्होंने नहीं देखा । - प्रहस्त आँसू का घूँट उतारकर पवनंजय की वह पीठ देखते रह गये ।
...वेदी का वज्र- कपाट खोलकर पवनंजय देहली पर अटक गये ।-चर ने आगे बढ़कर निश्चित भूमि में गर्भ कक्ष की शिला सरका दी । चर के हाथ से रत्न - दीप लेकर पवनंजय गर्भ-कक्ष में उत्तर पड़े !... भीतर करोड़ों वर्षों का पुरातन ध्वान्त घटाटोप छाया है। चट्टानों में कटे हुए सैकड़ों खम्भों और छतों में जल-पंछियों के अनगिनत घोंसले लटके हुए हैं। चारों ओर असंख्य अविजानित जीव-जन्तुओं की भयानक सृष्टि फैती है। समुद्रजल की विचित्र गन्ध से भरे वातावरण में, उन जन्तुओं के श्वास की ऊष्मा घुल रही है। जलचरों की नाना भयावह ध्वनियों के संगीत से वह तिमिरलोक गुजित है। -सामने की उस भीमकाय दीवार के ऊपर की एक पारदर्शी शिला में से, समुद्र तल का पीला उजाला झाँक रहा है। ऊपर-नीचे, भीतर-बाहर, चारों ओर समुद्र का अविराम गर्जन और संघात चल रहा है। - गर्म-कक्ष के प्रकृत पाषाण - वातायन पर खड़े होकर पवनंजय ने देखा - नीचे नाश की अतलान्त खाई फैली पड़ी हैं। उसके भीतर घुसकर समुद्र दिन-रात पछाड़ें खा रहा हैं
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....कुमार ने चित्त और श्वास का निरोध कर लिया । - सातों तत्त्वों पर शासन करनेवाले जिनेन्द्र का स्मरण कर, करबद्ध हो मस्तक झुका दिया। फिर अंजुलि उठाकर, उनके सम्मुख संकल्प किया
"हे परमेष्ठिन् ! हे निखिल लोकालोक के अयातन ! तू साक्षी है, मन्त्र का बल
मुक्तिदूत : 2005