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________________ ऊपर विमान के आरोडी विद्याधर के मन में भी यही प्रश्न था - "असाधारण योगायोग है - वैरी या आत्मीय?" इसी से उसका विमान अटका है और वह नीचे उतरने को बाध्य हुआ है। थोड़ी ही देर में रत्नों से जगमग करता हुआ विमान नीचे उतरा। अतिशय रूपवान् एक विद्याधर और विद्याधरी अचानक गुफ़ा के द्वार पर दिखाई पड़े। बड़े ही आदर-सम्भ्रम और मर्यादापूर्वक उन्होंने अंजना और वसन्त का अभिवादन किया । उनके प्रति प्रतिनमस्कार कर दोनों बहनों ने उनका स्वागत किया। विद्याधर- युगल ने सामने ही अंजना के अंक में नक्षत्र - सा ज्योतिष्मान् वह बालक देखा। साथ ही अप्सराओं-सी सुन्दर, कृश-गात, वल्कल पहने इन तापसियों को देख वे आश्चर्य से स्तम्भित रह गये । हो न हो, हैं तो कोई तापसियाँ ही - पर तापसियों के बालक कैसा ? शायद कोई गन्धर्व कन्याएँ स्वर्ग के सुख से ऊबकर भूमि पर चली आयी हैं, और किसी योगी का योग भंग कर यह ज्योतिर्मय बालक पा गयी हैं । इस जनहीन अरण्य में ऐसी सुन्दरी मानवियों के होने की तो उन्हें कल्पना ही नहीं हो सकी। विद्याधर ने सहन कुशल पूछी और तब विनयपूर्वक उनका परिचय जानने की उत्सुकता प्रकट की । आगतों के आविर्भाव के साथ ही कुछ ऐसा अन्तरंग का सामीप्य उन दोनों बहनों ने अनुभव किया कि अपने बावजूद कोई सन्देह उनके बारे में उनके मन में नहीं रहा। अनायास बसन्त ने सारा वृत्तान्त संक्षेप में कह सुनाया। विद्याधर युगल ज्यों-ज्यों सुनते जाते थे, उनकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग रही थी। ज्यों ही वृत्तान्त समाप्त हुआ कि विद्याधर अपने को सँभाल न सकी "हाय, बेटी अंजन... तेरे ऐसे भाग्य...? यह क्या अनर्थ घट गया..." कहते हुए वह आगे बढ़ आया और उसने अंजना को शिशु सहित छाती में भर लिया और कण्ठ भर-भरकर पागल की तरह वह उसे भेंटने लगा रुदन उसकी छाती में थम नहीं रहा था। - अंजना विस्मित थी, पर अन्तर में उसके भी वात्सल्य ही वात्सल्य उभर रहा था। किंचित् मात्र भी कोई शंका मन में नहीं जागी। थोड़ी देर बाद कुछ स्वस्थ होने पर विद्याधर ने अपना परिचय दिया। उसने बताया कि वह राजा चित्रभानु और रानी सुन्दमालिनी का पुत्र प्रतिसूर्य है। हनुरुहद्वीप का वह राजा है, और अंजना उसकी भानजी होती हैं। अंजना शैशव में केवल एक बार मामा के घर हनुरुहद्वीप गयी थी। उसके बाद फिर प्रतिसूर्य ने उसे कभी नहीं देखा, इसी से वे उसे पहचान न सके। सुना तो अंजना का हृदय भी जैसे विदीर्ण होने लगा । रक्त में कौटुम्बिक स्नेह और वात्सल्य का उफान आबे विना न रहा, जो भी चारों ओर से बिलकुल निर्मम और निरपेक्ष होकर उसने यह निर्जन को राह पकड़ी थी । उसे याद हो आये ये प्रसंग जब कई बार माँ हनुरुहद्वीप के संस्मरण सुनाया करती थी। अपनी अबोध अवस्था में हनुरुहद्वीप जाने की एक धुंधली सी स्मृति भी उसे है - समुद्र का वह महानील प्रसार और उस समुद्र यात्रा में माँ के द्वारा दिखाये ॥ मुक्तिदूत ::
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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