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________________ प्रखर वेदना से, तपाये - सोने- सा चमक रहा था । वसन्त तुरन्त समझकर सावधान हो गयी। खूब ही सतर्कता से उठाकर उसने अंजना को उस कास की शय्या पर लिटाया । ... पर्वत के श्रृंग पर स्वर्ग के समुद्र में से सूर्य का लाल बिम्ब झाँक उठा। ठीक उसी क्षण अंजना ने पुत्र प्रसव किया। उजाले से सारी गुहा झलमला उठी । मानो उन पुरातन चट्टानों में क्षण-भर को सोना ही पुत्त गया हो। वसन्त और अंजना को दीखा कि गुहा की छत में रह-रहकर गुप्त रत्नों की सतरंगी किरणों का आभास सा हो रहा हैं। बाहर घाटियों के फूल वनों में पंछी मंगलगान गा रहे थे। शिखर देश में गन्धर्व की वीणा अनन्त सुरावलियों में झंकार उठो हवाओं के झकोरों में भरकर सुखोल्लास भरी रागिनियाँ उपत्यकाओं को आलोड़ित कर गयीं। ... अंजना ने पुत्र का मुख देखा - निमिष भर एकटक वह देखती ही रह गयी । - अन्तर के अगोचर में जिस अरूप सौन्दर्य की झलकें भर पाकर, जिसे अपनी इन आँखों में बाँध पाने को बार-बार वह तरस गयी थी- आह वहीं सौन्दर्य! - बही सौन्दर्य बँध आया है आज उसी के रक्त मांस के बन्धनों में...? पर सम्मुख होकर खुली आँखों उसे देख पाने का साहस आज नहीं हो रहा है! पलकें गालों पर चिपकी जा रही हैं, बरौनियों में आँसू गंध रहे हैं। और स्पर्शातीत कोमलता से दोनों कृश भुजाओं में शिशु को भरकर, वह मुग्ध भाव से उसे बक्ष से चाँप रही है। मन-ही-मन कह रही है · ...नहीं जन्मा है तू आदित्यपुर के राजमहलों में नहीं जन्मा है तू महेन्द्रपुर के राजमन्दिरों में नहीं झूल रहा है किसी प्रासाद के अलिन्द में तेरा रत्नों का पालना । ऐश्वर्य और वैभव का क्रोड़ तुझे नहीं रुचा नाश की राह चल, बियाबानों के इन पाषाणों में आकर तुझे जन्म लेना भाया ? - निराले हैं तेरे खेल, ओ उद्धत .... तेरी लीलाओं से मैं कब पार पा सकी हूँ? राजांगन में नहीं हो रहा हैं तेरे जन्म का उत्सव । इन शून्य की हवाओं और झरनों में बज रहे हैं तेरे जन्मोत्सव के बाद्य ! धरणी तेरा बिछौना है और आकाश तेरा ओदना । - चारों ओर मौन मौन चल रही है, कुसुमों की उत्सव -सीला नहीं समझ पा रही हूँ, इसके लिए तुझे महाभाग कहूँ या हतभाग्य कहूँ, पापी कहूँ या पुण्य-पुरुष कहूँ....? प्रसव के आवश्यक उपचार के उपरान्त, वसन्त अकेली - अकेली मंगल का आयोजन करने लगी। भर आते एकाकी कण्ठ से उसने जन्मोत्सव का गीत गाया । द्वार पर उसने अशोक का तोरण बाँधा और फूलों की डालियों से गुफा के अन्तर्भाग को सजा दिया । सद्यः तोड़े हुए कमलों के कैंसर से उसने शिशु के लिए शय्या रची तथा घाटी की देव प्रतिमा के पादार्थ्य रूप में मल्लिका के फूल लाकर उसने अंजना की शय्या में बिछा दिये। वसन्त को अकेले अकेले गीत गाते और मंगलाचार करते देखकर अंजना का 182 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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